बचपन में जब कहीं अपने देश की गुलामी के समय अंग्रेजों द्वारा जुल्मों की कहानियाँ पढ़ता था तो मेरा भी खून खौलता था ,कि, अगर मैं उस समय पैदा हुआ होता तो क्रांतिकारियों की तरह अंग्रेजों से लड़ता। लड़ता, मतलब लड़ता , पिटता नहीं बल्कि पीट-पीट कर रिकॉर्ड बना डालता जैसे "अंगुलिमाल डाकू ने अँगुलियों की माला अपने गले में डाली हुयी थी" ।
और मेरा रिकॉर्ड बन भी जाता क्योंकि अत्याचारी अंग्रेज कम नहीं थे ।
क्रांतिकारियों के किस्से तो मेरे पसंदीदा सामग्री में रहे , “आनंदमठ”मैंने शायद पच्चीसों बार पढ़ी होगी ,आज भी अगर मैं देख लूँ तो उसे पढ़ने से अपने को न रोक सकूँ।
उस समय बाल मन था सोचा करता था कि आज अंग्रेज आजायें तो ,या आज हमें गुलाम बनाकर दिखाए तो ,बताऊँ।
मुझे क्या पता था कि भारत वास्तव में आजाद हुआ ही नहीं था ,बड़ा होता गया आँखें खुलती गई सबसे पहले, पढ़ते समय ही मुझे लगने लगा कि हमारी शिक्षा पर बंदिश क्यों है जो जो पढ़ा रहे हैं वही पढ़ने की मज़बूरी ,फ़िर जो सरकारी डिग्री या सर्टिफिकेट ले, वो ही पढ़ा लिखा माना जाए …क्यों ? ठीक है सरकारी नौकरी के लिए सरकारी शिक्षा या सर्टिफिकेट ही सही, पर जो घर पर पढ़ लिख सकता है उसे कैसे तुम अनपढ़ कह सकते हो,सरकारी नौकरी के लिए अगर सरकारी सर्टिफिकेट की जरुरत है तो भी , फ़िर नौकरी के लिए कई-कई परीक्षाएं क्यों ? क्या तुम्हारी दी हुयी शिक्षा पर तुम्हें ही भरोसा नहीं ?
इसी तरह न्याय व्यवस्था में भी कई-कई न्यायालय ….. अगर छोटे न्यायालय ग़लत निर्णय देते हैं तो उन्हें क्यों बना रखा है बंद करो ।
आँखे खुलती गई.... कानून व्यवस्था १८६० की अंग्रेजों की, अपनों की रक्षा के लिए बनाया कानून आज भी लागू है , शिक्षा नीति अंग्रेजों की....
कर (टैक्स ) नीति अंग्रेजों की ,सरकारी नीतियाँ सब अंग्रेजोंकी ,प्रशासनिक हों या गैर प्रशासनिक हों ,सेना में लागू हों ,या सिविल में, सब कुछ अंग्रेजो की ही नीतियाँ ,आख़िर हम आजाद कहाँ हुए ? कुछ दिन पहले पता चला, कि हम वास्तव में आजाद हुए ही नहीं थे । राजीव दीक्षित जी ने स्वामी रामदेव के मंच से बताया कि ,
जिस दिन को हमारा स्वतंत्रता दिवस बताया जाता है उस दिन केवल “ट्रांसफर एग्रीमेंट ऑफ पावर”पर हस्ताक्षर करवा कर अंग्रजों ने अपनी पॉवर का हस्तान्तरण किया था ।
मैंने पहले भी लिखा है कि हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी क्यों थी जब कुछ बदलना ही नहीं था तो क्यों उन्होंने अपनी जानें दीं ,क्यों ….?क्यों…?क्यों…?
इस क्यों का उत्तर कोई नहीं दे सकता ,क्योंकि इसे समझना जरा मुश्किल सा है , पर सीधा सा है, वो ये , कि भारत की जनता ने अपने कुछ नेताओं पर इतना अन्धविश्वास कर लिया था कि ,उन्होंने जो किया उस पर चुप रही ,जिसने विरोध किया उसके ही सब विरोधी हो गए ,और नेताओं ने इस बात का लाभ अपने हित में उठाया देश हित भूल गए ,क्योंकि सत्ता(पॉवर) हाथ में लेनी थी ।
दरअसल संसार में दो शक्तियां हैं, संसार में ही क्यों पूरे ब्रह्माण्ड में दो शक्तियां हैं । उन्हें धाराएँ कह लो या जोड़ा कह लो ,
या उर्जा कहलो, इन दो का आपस में भी तार जुड़ा है एक के बिना दूसरे का अस्तित्व समझ नहीं आयेगा और न काम चलेगा जैसे विद्युत की दोनों धाराओं के संयोजन के कारण ही कोई भी बल्ब या अन्य उपकरण काम करता है इसी तरह प्रकृति में भी दोनों शक्तियां कायम हैं इनको सकारात्मक व नकारात्मक के रूप में जाना जाता है , सात्विक – तामसिक ,दैवी –आसुरी ,
व अन्य भी कई तरह के उच्चारण से इनको जाना जाता है ,ये एक दूसरे के विपरीत होती हैं पर इनमे एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी होता है। ये बात मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि समझने में आसानी हो जाए ,जैसे हमने पौराणिक कथाओं में में देवासुर संग्राम के बारे में पढ़ा है ये समझ लो कि देवासुर संग्राम लगातार प्रकृति में चलता रहता है ,और आमतौर पर देव प्रकृति ही विजयी रहती है पर देव प्रकृति की एक कमजोरी है कि आलसी होती है और शांत होती है,इस तरह की सैकड़ों कहानियाँ हमने(तुमने) सुनी-पढ़ी होंगी ।
१९४७ में भी आसुरी शक्तियां प्रबल थी उसके प्रभाव में हमारे कुछ नेता मानवीयता को भुला बैठे आसुरी सोच के कारण अपने स्वार्थ में वही कुछ किया जो असुरत्व को बढ़ावा देता चला गया ।
कहते हैं कि महात्मा गाँधी (बापू जी) की भी नहीं सुनी गई ।
उन्होंने कहा था कि स्वतंत्र होते ही पहला काम अंग्रेजों द्वारा लागू कानून व शिक्षानीति बदलने का होना चाहिए ।
आज देश का हाल सभी जानते हैं ,शायद इतना बुरा हाल पिछले हजारों सालों में भी नहीं रहा जब कि हम परतंत्र भी हुए पर अपनी मानसिकता को कभी गुलाम नहीं होने दिया ,आज ,आज तो हम मानसिक रूप से ही गुलाम हो गए ,कोई बात ग़लत हो रही है और हमें पता है कि ग़लत है समाज के प्रति इसका प्रभाव बुरा होगा फ़िर भी हम मानसिक गुलामी के कारण निर्लज्जता से उसको सही ठहराने के प्रयास करते हैं ऐसा ही असुर करते थे । जैसे रावण ने अपनी बहन सूर्पनखा से ये नहीं पूछा कि वह क्यों वहां(राम -लक्षमण के पास) अपने राक्षसी चरित्र का बखान व जबरदस्ती करने गई थी बल्कि वह उल्टा राम को ही ग़लत बताता है वही आज होने लगा है । आज भी नहीं पूछा जा रहा ।
इस स्थिति को सुधारने का बहुतों ने प्रयास किया कुछ हद तक सफल भी रहे और देवासुर संग्राम चलता रहा ,लेकिन अब लग रहा है कि स्वामी रामदेव के द्वारा इसमें निर्णायक तरीके से प्रहार किया जाएगा जितनी शक्ति और जनसमर्थन उन्होंने देवत्व के पक्ष में कर लिया है उसे देख कर लगता है कि अब असुरत्व को झुक कर रहना पड़ेगा, समाप्त तो नहीं होगा क्योंकि समाप्त कुछ होता ही नहीं ।
अब हमने ये देखना है कि हम किस तरफ़ हैं हमें किस शक्ति का साथ देना है , मुझे तो लगता है कि मैं अपने बचपन की इच्छा को पूरा कर सकता हूँ कि अब भारत की सम्पूर्ण आजादी के लिए ,भारतीयता के स्वाभिमान के लिए सशस्त्र तरीके से नहीं तो वैचारिक रूप से ही सही आज के भारतीय अंग्रेजों से लड़ सकता हूँ ,पर ये दुःख रहेगा कि उनमें मेरे मित्र भाई व सम्बन्धी भी होंगे । जैसे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने में क्रांतिकारियों के सम्बन्धी कभी कभी अंग्रेजों के पिट्ठू होते थे । आज का मीडिया तो पूरा का पूरा आसुरी शक्तियों के साथ अपने को निर्लज्जता के साथ जोड़ रहा है । सात्विक शक्तियों कि खिल्ली उड़ा रहा है । लेकिन ये बेपेंदी का लोटा है जब जिधर अपना फायदा देखेगा उधर पलटी मार जाएगा ।
किसी कवि कि लिखी दो पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं …
तय करो किस और हो तुम ,तय करो किस और हो।
आदमी के साथ हो या कि आदमखोर हो ।
तय करो किस और हो ।
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