कमेटी का अध्यक्ष अमर सिंह को बनाओ,सह अध्यक्ष दिग्विजय सिंह को बनाओ,दूसरा सह अध्यक्ष मायावती को बनाओ,तीसरा सह अध्यक्ष पंवार को बनाओ, चौथा…….., पांचवा……..,इतने बड़े देश में कमसेकम, पच्चीस अध्यक्ष तो होने ही चाहिए। इन सबकी सरदार (राजमाता जी) सोनिया को, और सलाहकार युवराज को बनाओ, अब बचे सदस्य, उनमे; ए राजा,सुरेश कलमाड़ी,ललित मोदी,जयललिता, करूणानिधि परिवार, मुलायम सिंह परिवार,लालू यादव को मत भूलना,हसन अली इसी तरह विपक्ष में भी कुछ ढूंढ़ कर मिल जायेंगे, केवल पार्टियों के ही जरुरी थोड़े है हैं और भी हो सकते हैं जैसे सिविल सोसायटी वाले और उनके लिए चेहरे का काम करने वाले हजारे। उद्योग पति भी होने चाहिए। तब कहीं ढंग की कमेटी बनेगी; जिस पर ये विश्वास किया जा सकता है कि ये चलेगी । अब जनता माने या न माने । जनता को मनवाने के लिए गली मोहल्ले के चेले-चपाटे अच्छा काम करते हैं बस उन्हें कुछ हड्डियाँ देनी होती हैं ।
ये भी कोई कमेटी है, (जो बनी है)
ये कमेटी शुरू से ही गलत बन गयी, कमेटी तो ऐसी होनी चाहिए, जिसमे सभी वर्गों को महत्त्व मिले। केवल दस सदस्यों को ही क्यों ? क्या अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व न होने से उनमें अविश्वास का कीड़ा नहीं कुलबुलाता रहेगा।जनता बेशक वर्गाकार नहीं पर इनके नेता तो वर्गाकार हैं ।
विशेष कर भ्रष्टों के वर्ग को तो प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए। और उन संस्कार भ्रष्ट (सेकुलर) लोगों को जरुर इसमें रखें जिन्होंने ये दाल इतनी जल्दी पकाई कि सारी दाल ही काली हो गयी ।
एक और बात कमेटी के सदस्य नामी-गिरामी होने चाहिए, जैसे हमने सुझाये हैं। ऐसे नहीं कि देश की जनता आपस में ही पूछते रहे फलां कौन है-फलां कौन है ?
एक बहुत अच्छा सुझाव ये भी है कि इस जन लोकपाल को किसी विदेशी कम्पनी को ठेके पर दे देना चाहिए। स्वदेशी कम्पनियों को इसलिए नहीं; कि देश की जनता और नेताओं को उन पर भरोसा नहीं।
विदेशी कम्पनियों से निविदाएँ मांगनी चाहिए सच में उतना खर्च नहीं आएगा जितना अपनी स्वदेशी सदस्यों की कमेटी और जाँच में आएगा ।
ताजा प्रविष्ठियां
Wednesday, April 27, 2011
Tuesday, April 26, 2011
दाल काली क्यों हुयी ?
बोध कथा
हमारे देश में एक तरफ बड़े इत्मिनान से स्वादिष्ट दाल बन रही है बनते-बनते उसकी महक चारों ओर छाने लगी। जिससे लोग उसमे और घी-मसाले डालने लगे। पर ये बनती हुयी दाल कुछ संस्कार भ्रष्ट (सेकुलर) लोगों को नहीं भायी। क्योंकि वो अपने को उनसे सभ्य और कुलीन समाज का समझते थे; इनके द्वारा बनी दाल वो कैसे खाते । इसलिए उन्होंने भी दाल बनाने की सोची, और जल्दी बनाने की सोची। इस जल्दबाजी में सबने मिलकर उसके नीचे इतनी ज्यादा आग जलाई, कि दाल जल कर काली हो गयी। अपने रिश्तेदारों(हवा बनाने वाले मीडिया) को भी इसके लिए तैयार किया कि तुम इतनी तेज हवा करो कि लोगों तक बस हमारी दाल की खुशबु पहुंचे, वो उनकी दाल को भूल कर बस हमारी दाल खाएं। पर अब लोगों को समझ आ रहा है, कि दाल काली क्यों हुयी उसका स्वाद भी ख़राब होना ही था।
अब जो भी उनकी दाल को सूंघ रहा है (चखने का तो सवाल ही नहीं) थू-थू कर रहा है।
हमारे देश में एक तरफ बड़े इत्मिनान से स्वादिष्ट दाल बन रही है बनते-बनते उसकी महक चारों ओर छाने लगी। जिससे लोग उसमे और घी-मसाले डालने लगे। पर ये बनती हुयी दाल कुछ संस्कार भ्रष्ट (सेकुलर) लोगों को नहीं भायी। क्योंकि वो अपने को उनसे सभ्य और कुलीन समाज का समझते थे; इनके द्वारा बनी दाल वो कैसे खाते । इसलिए उन्होंने भी दाल बनाने की सोची, और जल्दी बनाने की सोची। इस जल्दबाजी में सबने मिलकर उसके नीचे इतनी ज्यादा आग जलाई, कि दाल जल कर काली हो गयी। अपने रिश्तेदारों(हवा बनाने वाले मीडिया) को भी इसके लिए तैयार किया कि तुम इतनी तेज हवा करो कि लोगों तक बस हमारी दाल की खुशबु पहुंचे, वो उनकी दाल को भूल कर बस हमारी दाल खाएं। पर अब लोगों को समझ आ रहा है, कि दाल काली क्यों हुयी उसका स्वाद भी ख़राब होना ही था।
अब जो भी उनकी दाल को सूंघ रहा है (चखने का तो सवाल ही नहीं) थू-थू कर रहा है।
Monday, April 11, 2011
बधाई हो ! बाबाजी की लोकप्रियता एक बार फिर उछाल मारने वाली है
जैसा कि आज से पहले कई बार देखा गया है,जब-जब इस (भ्रष्ट) मीडिया और नेताओं ने, या किसी "नादान" ने, बाबा पर विवाद थोपा, या आरोप लगाये, या बखेड़ा खड़ा किया, तब-तब बाबाजी की लोकप्रियता में उछाल आया है।
अभी कुछ दिन पहले एक “सर्वे रिपोर्ट” का समाचार मिला; कि स्वामी रामदेवजी भारत के सबसे शक्तिशाली पचास लोगों की सूचि में ग्यारहवें नंबर पर आ गए हैं। इस स्थान तक पहुंचने में, बाबाजी के; 'समाज- के लिए किये गए कार्य' तो हैं ही, पर; 'कुछ असामाजिक लोगों और (भ्रष्ट) मीडिया द्वारा किये गए झूठे और दुर्भावना पूर्ण प्रकार के प्रचार का भी योगदान रहा है'। जैसे सोने को अग्नि में तपा कर अग्नि परीक्षा ली जाती है। पर "ये भ्रष्ट" 'ये सोच कर सोने को बार-बार अग्नि(विवादों) में डाल रहे हैं; कि शायद ये भस्म बन जाये, पर ऐसा नहीं हो पा रहा; क्योंकि सोना खरा है। इसलिए उसकी चमक बढ़ जाती है।
“अँधेरे के पैरोकार”
अँधेरे के पैरोकार सन्नाटे में हैं,
कि अब उजाला होने लगा है।
अमावस का अँधेरा छंटने लगा,
भोर का तारा दिखने लगा है।
धुल धुलने लगी अब वर्षा से,
फूलों का रंग चटख होने लगा है।
अँधेरे के पैरोकार ……।
कुछ तो दाल में काला है
मैंने पहले भी लिखा है। इतनी छोटी सी बात को जिस तरह प्रचारित किया या किया जा रहा है उसको सरकार के मान लेने को जितनी बड़ी विजय बता कर प्रचार किया गया वह उतनी बड़ी विजय नहीं है जितना जश्न मन गया या मीडिया ने मनवा दिया। ये जरुर बड़े आन्दोलन का महत्त्व कम करने के लिए किया गया है। जैसे फ़ाईनल से पहले के मैच, ‘पाकिस्तान के साथ वाले मैच को फ़ाईनल की तरह घोषित करके; सब पटाखे इसी मीडिया ने फुड़वा दिए थे। जैसे छोटी दीवाली को बड़ी दीवाली की तरह मना लिया जाये तो फिर बड़ी दीवाली पर वह जोश कहाँ रह पायेगा, ऐसा इनका मानना है। पर इस बार ऐसा नहीं होगा।
इण्डिया और भारत
कल समाचार में एक नेता कह रहे थे कि ‘ये आन्दोलन बड़े लोगों का था, इस से आम, और गाँव के लोगों का कोई वास्ता नहीं’। कुछ हद तक अब मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। इस बात को "इण्डिया और भारत" के परिप्रेक्ष में देखें तो सब कुछ समझ आ जायेगा। बेचारे अन्ना हजारे,सीधे-सादे,साफ नीयत,बेदाग जीवन, गाँधीवादी और आन्दोलन करने के लिए अति उत्साहित, किन्तु "इन इण्डिया वालों की नीयत नहीं समझ पाए" जो पिछले काफी समय से मौके की तलाश में बैठे थे; कि कैसे बाबा रामदेव जी की आंधी को रोकें या लोकप्रियता में पीछे करें । इन इण्डिया वालों में टी.वी. वाले, समाचार पत्र-पत्रिका वाले,सोशल एक्टिविस्ट्स (सामाजिक कार्यकर्त्ता नहीं)कुछ नए पुराने नौकरशाह (ब्यूरो क्रेट्स) सभी को मौका मिल गया ।
क्या सौ साल पुराना इतिहास दोहराया जायेगा ?
ब्रह्मसमाज की स्थापना राजा राममोहन राय ने समाज सुधार के लिए की। जिसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था। समाज में सुधार के कार्य तो होते थे; पर अंग्रेज इसके द्वारा अपने हित भी साधते थे। जिसके सदस्य केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही बन सकते थे। दूसरी तरफ स्वामी दयानद सरस्वती ने आर्यसमाज की स्थापना की। जिसमे देशभक्त और भारतीयता विशेषकर वेदों के प्रचारक तैयार किये जाते थे। कालांतर में उसी ब्रह्मसमाज से कांग्रेस बनी, और क्रांतिकारियों में आर्यसमाज लोकप्रिय रहा। सब इस बात को जानते हैं। (इस सब को जानने के लिए महान लेखक गुरुदत्त का उपन्यास दो “लहरों की टक्कर” पढना चाहिए)। तब के इण्डिया वालों को मोहनदास करमचंद गाँधी मिल गए अपने चेहरे ढंकने के लिए। अब के इण्डिया वालों को अन्ना हजारे 'मिल गए माने या नहीं' अभी स्पष्ट नहीं है।
तब मुखौटा गाँधी जी का होता था, और काम, ‘अंग्रेजियत के समर्थक या ये कह लो "अंग्रेजों के केवल राजनैतिक विरोधी" करते थे। गांधीजी इस बात जानते हुए भी ये सोच कर चुप रहते थे कि अंग्रेजों के जाने बाद जब व्यवस्था अपनों के हाथों में होगी तो तब इसमें सुधार कर लेंगे। पर ऐसा नहीं कर पाए। इसीलिए शायद उन्होंने एक फरवरी १९४८ से आजादी का दूसरा आन्दोलन शुरू करने की घोषणा कर दी थी। पर ३० जनवरी को ही उनकी हत्या हो गयी। जिसके विषय में मैंने पहले भी लिखा है,कि ‘बंदूक बेशक गोडसे के हाथ में थी पर दिमाग या साजिश उसमे किसी और की थी। उस साजिश में आर एस एस को बदनाम करना भी शामिल था। क्योंकि बिना किसी के ऊपर आरोप लगाये, अपनी साजिश छिप नहीं सकती थी ।
आज भी वही कुछ हो रहा है। पर ये सफल नहीं होंगे, कारण; आज स्वामीजी ने हर गाँव गली मौहल्ले में ऐसे लोग तैयार कर दिए हैं जिन्हें बाबाजी द्वारा बताये योग और प्राणायाम से जिंदगी मिली है और उसे करते-करते वह भारत और इण्डिया का अंतर भी जानने लगे हैं । और आज बाबाजी साधन संपन्न हैं । उनके पास कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी फ़ौज और दान देने वालों की कमी नहीं है। उन्होंने देश के लगभग साठ प्रतिशत लोगों के संस्कारों को जगा दिया है। और सबसे बड़ी बात स्वामीजी योग और प्राणायाम से स्वयं इतने ऊर्जावान और समर्थ हैं कि हर देश वासी को उन पर पूरा भरोसा है कि अब तो केवल एक यह ही हैं जो कुछ अच्छा कर सकते हैं ।
यही कारण है कि उनकी लोकप्रियता हर विवाद के बाद बढ़ जाती है , ऐसा ही इस बार भी होगा ।
अभी कुछ दिन पहले एक “सर्वे रिपोर्ट” का समाचार मिला; कि स्वामी रामदेवजी भारत के सबसे शक्तिशाली पचास लोगों की सूचि में ग्यारहवें नंबर पर आ गए हैं। इस स्थान तक पहुंचने में, बाबाजी के; 'समाज- के लिए किये गए कार्य' तो हैं ही, पर; 'कुछ असामाजिक लोगों और (भ्रष्ट) मीडिया द्वारा किये गए झूठे और दुर्भावना पूर्ण प्रकार के प्रचार का भी योगदान रहा है'। जैसे सोने को अग्नि में तपा कर अग्नि परीक्षा ली जाती है। पर "ये भ्रष्ट" 'ये सोच कर सोने को बार-बार अग्नि(विवादों) में डाल रहे हैं; कि शायद ये भस्म बन जाये, पर ऐसा नहीं हो पा रहा; क्योंकि सोना खरा है। इसलिए उसकी चमक बढ़ जाती है।
“अँधेरे के पैरोकार”
अँधेरे के पैरोकार सन्नाटे में हैं,
कि अब उजाला होने लगा है।
अमावस का अँधेरा छंटने लगा,
भोर का तारा दिखने लगा है।
धुल धुलने लगी अब वर्षा से,
फूलों का रंग चटख होने लगा है।
अँधेरे के पैरोकार ……।
कुछ तो दाल में काला है
मैंने पहले भी लिखा है। इतनी छोटी सी बात को जिस तरह प्रचारित किया या किया जा रहा है उसको सरकार के मान लेने को जितनी बड़ी विजय बता कर प्रचार किया गया वह उतनी बड़ी विजय नहीं है जितना जश्न मन गया या मीडिया ने मनवा दिया। ये जरुर बड़े आन्दोलन का महत्त्व कम करने के लिए किया गया है। जैसे फ़ाईनल से पहले के मैच, ‘पाकिस्तान के साथ वाले मैच को फ़ाईनल की तरह घोषित करके; सब पटाखे इसी मीडिया ने फुड़वा दिए थे। जैसे छोटी दीवाली को बड़ी दीवाली की तरह मना लिया जाये तो फिर बड़ी दीवाली पर वह जोश कहाँ रह पायेगा, ऐसा इनका मानना है। पर इस बार ऐसा नहीं होगा।
इण्डिया और भारत
कल समाचार में एक नेता कह रहे थे कि ‘ये आन्दोलन बड़े लोगों का था, इस से आम, और गाँव के लोगों का कोई वास्ता नहीं’। कुछ हद तक अब मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। इस बात को "इण्डिया और भारत" के परिप्रेक्ष में देखें तो सब कुछ समझ आ जायेगा। बेचारे अन्ना हजारे,सीधे-सादे,साफ नीयत,बेदाग जीवन, गाँधीवादी और आन्दोलन करने के लिए अति उत्साहित, किन्तु "इन इण्डिया वालों की नीयत नहीं समझ पाए" जो पिछले काफी समय से मौके की तलाश में बैठे थे; कि कैसे बाबा रामदेव जी की आंधी को रोकें या लोकप्रियता में पीछे करें । इन इण्डिया वालों में टी.वी. वाले, समाचार पत्र-पत्रिका वाले,सोशल एक्टिविस्ट्स (सामाजिक कार्यकर्त्ता नहीं)कुछ नए पुराने नौकरशाह (ब्यूरो क्रेट्स) सभी को मौका मिल गया ।
क्या सौ साल पुराना इतिहास दोहराया जायेगा ?
ब्रह्मसमाज की स्थापना राजा राममोहन राय ने समाज सुधार के लिए की। जिसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था। समाज में सुधार के कार्य तो होते थे; पर अंग्रेज इसके द्वारा अपने हित भी साधते थे। जिसके सदस्य केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग ही बन सकते थे। दूसरी तरफ स्वामी दयानद सरस्वती ने आर्यसमाज की स्थापना की। जिसमे देशभक्त और भारतीयता विशेषकर वेदों के प्रचारक तैयार किये जाते थे। कालांतर में उसी ब्रह्मसमाज से कांग्रेस बनी, और क्रांतिकारियों में आर्यसमाज लोकप्रिय रहा। सब इस बात को जानते हैं। (इस सब को जानने के लिए महान लेखक गुरुदत्त का उपन्यास दो “लहरों की टक्कर” पढना चाहिए)। तब के इण्डिया वालों को मोहनदास करमचंद गाँधी मिल गए अपने चेहरे ढंकने के लिए। अब के इण्डिया वालों को अन्ना हजारे 'मिल गए माने या नहीं' अभी स्पष्ट नहीं है।
तब मुखौटा गाँधी जी का होता था, और काम, ‘अंग्रेजियत के समर्थक या ये कह लो "अंग्रेजों के केवल राजनैतिक विरोधी" करते थे। गांधीजी इस बात जानते हुए भी ये सोच कर चुप रहते थे कि अंग्रेजों के जाने बाद जब व्यवस्था अपनों के हाथों में होगी तो तब इसमें सुधार कर लेंगे। पर ऐसा नहीं कर पाए। इसीलिए शायद उन्होंने एक फरवरी १९४८ से आजादी का दूसरा आन्दोलन शुरू करने की घोषणा कर दी थी। पर ३० जनवरी को ही उनकी हत्या हो गयी। जिसके विषय में मैंने पहले भी लिखा है,कि ‘बंदूक बेशक गोडसे के हाथ में थी पर दिमाग या साजिश उसमे किसी और की थी। उस साजिश में आर एस एस को बदनाम करना भी शामिल था। क्योंकि बिना किसी के ऊपर आरोप लगाये, अपनी साजिश छिप नहीं सकती थी ।
आज भी वही कुछ हो रहा है। पर ये सफल नहीं होंगे, कारण; आज स्वामीजी ने हर गाँव गली मौहल्ले में ऐसे लोग तैयार कर दिए हैं जिन्हें बाबाजी द्वारा बताये योग और प्राणायाम से जिंदगी मिली है और उसे करते-करते वह भारत और इण्डिया का अंतर भी जानने लगे हैं । और आज बाबाजी साधन संपन्न हैं । उनके पास कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी फ़ौज और दान देने वालों की कमी नहीं है। उन्होंने देश के लगभग साठ प्रतिशत लोगों के संस्कारों को जगा दिया है। और सबसे बड़ी बात स्वामीजी योग और प्राणायाम से स्वयं इतने ऊर्जावान और समर्थ हैं कि हर देश वासी को उन पर पूरा भरोसा है कि अब तो केवल एक यह ही हैं जो कुछ अच्छा कर सकते हैं ।
यही कारण है कि उनकी लोकप्रियता हर विवाद के बाद बढ़ जाती है , ऐसा ही इस बार भी होगा ।
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