हम तुम्हें ढूँढते रहे
महीनों से,
खुले मेनहोल के पास ,
टूटे-फूटे बस अड्डे के पास,
सालों से नहीं बन पा रही
सड़कों के पास ,
बिना डॉक्टर के
अस्पतालों में ,
बिना मास्टर के
विद्यालयों में ,
अनियंत्रित गाड़ियों से कुचलते
लोगों के पास ,
मिलावट करते जहर की
खाने के सामानों की फैक्ट्रियों में,
सूखती नदियों में ,
जलते जंगलों में ,
मंहगे हुए बाजारों में ,
फर्जी मुठभेडों में ,
लुटती आबरू में ,
सरकारी हड़तालों में ,
भूखे मजदूरों में ,
निराश जनता में ,
तुम कहाँ हो …, तुम कहाँ हो…., तुम कहाँ हो….?
आम आदमी को यही कही होना चाहिये था कहा चला गया?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आपने तो --