"सच क्या है" ये या तो पुलिस वाले जानते हैं या मरने वाला ।
बाकियों को पता लगना मुश्किल है,क्योंकि “ये हिंदुस्तान है”।
अगर पता लग भी गया तो भी क्या होगा , क्या आज तक कुछ हुआ ?
कुछ दिन की कैद वो भी कई साल मुकदमा लड़ने के बाद ।
दरअसल, जो कांटे कई तरह से आज हमें चुभ रहे हैं, वो
कभी हमारे पूर्वजों ने ही बोए हैं ,(बोए तो अंग्रेजों ने हैं पर खाद- पानी हमारे पूर्वज देते आए हैं जो इन्हें काट भी सकते थे) अब सूख कर इतने पक्के हो गए हैं कि जब चुभते हैं तो ,लहूलुहान कर जाते हैं ।
कहते हैं “बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होए”
ऐसा ही बबूल का पेड़ हमारी कानून व्यस्था के रूप में अंग्रेजों ने बोया था,पुलिस प्रणाली उसी बबूल के पेड़ की शाखा है।
जब “ये” पेड़ लगाया था तब “वैसे अपराधी” कम होते थे । अंग्रेजो के “विरोधियों-क्रांतिकारियों” को ही अपराधी माना जाता था उन्हें जेलों में सड़ाने को या फर्जी मुठभेड़ में मारने को ये कानून बनाया था ।
इस कानून की एक विशेषता ये थी कि इनके अपने लोगों से यदि कोई अपराध हो जाता था तो ये ,उसकी जमानत कर के उसका बचाव कर लेते थे या दिखावे के लिए उसे जेल में बंद करके पूरी सुविधा का ध्यान रखते थे ,हमारे बहुत से तत्कालीन (१९४७से पहले के) नेताओं ने इसी सुविधा का लाभ उठाते हुए जेल यात्रा का रिकार्ड बनाया है। और दूसरी तरफ़ क्रांतिकारियों ने हजारों की संख्या में अंग्रेजों की गोलियां खायी हैं और गुमनाम मर गए।
जब भारत आजाद हुआ तो ये कानून बदलने चाहिए थे ,पर हमारे नेताओं ने इसे अपनी सुविधा के लिए "जस का तस" रहने दिया और हमारे आम आदमियों(पूर्वजों ने) उन्हें भरपूर समर्थन दिया , आज भी उनके "अंध भक्त" उनकी बुराई सुनने को तैयार नहीं (तोड़-फोड़ कर देते हैं)।
और( दिखावे के लिए) फर्जी मुठभेड़ के विरोध में धरना-प्रदर्शन करते हैं।
क्या अपने पूर्वजों की गलती को सुधारने के लिए हम कभी धरना प्रदर्शन करेंगे ?
मेरी ये बात भारत के किसी भी स्थान पर हुयी फर्जी मुठभेड़ के लिए लिखी गई है।
जब मुठभेड़ हो जाती है तब सब चिल्लाते हैं "पर उस कांटेदार पेड़ को उखाड़ने की पहल कोई नहीं कर रहा है"।
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