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Wednesday, June 24, 2009

"अंग्रेज गए औलाद छोड़ गए"

लोग कहते हैं कि “अंग्रेज गए औलाद छोड़ गए” जिसे सुन कर एकदम नीम की तरह कड़वा लगता है। और उन लोगों को तो ये वाक्य वास्तव में बहुत बुरा लगता होगा जिन पर ये सार्थक होता है,सार्थक होने के बावजूद कौन चाहेगा कि उसे दूसरे की औलाद कहा जाए, वो भी उनकी; जो समस्त भारतीयों के लिए घृणा के पात्र रहे हों । ऐसे लोग जिन्हें "अंग्रेजों की…… "कहा गया पहले से कम होते थे ,लेकिन अब तो बहुतायत में ऐसे लोग नजर आते हैं कि कभी तो ऐसा लगता है जैसे सभी पर ये वाक्य लागू कर देना चाहिए।
आजकल ग्लोब्लाइजेशन के दौर में अंग्रेजों की तरह और भी कई तरह की औलादें पैदा हो गई हैं ,उनके लिए छोड़ गए शब्द इस्तेमाल नहीं कर सकते ; क्योंकि वे अंग्रेजों के जाने के कई साल बाद पैदा हुए हैं। जी हाँ वे पैदा हुए हैं , ग्लोब्लाइजेशन के कारण से। जिसको जिस देश का फैशन या अन्य कुछ अच्छा लगा वह उस देश की औलाद बन गया ,फ़िर वो भारत की औलाद नहीं रहा । जैसे किसी भी औलाद को अपने माँ-बाप की बुराई दिखाई नहीं देती उसे भी अपने दत्तक पिता की बुराई दिखाई नहीं देती। वो उसकी बुराई सुन भी नहीं सकते ।
केवल फैशन में ही नहीं उसकी सभ्यता-संस्कृति, रीति-रिवाज,परम्पराएं,धर्म,आध्यात्म,
इतिहास,इतिहास पुरूष,सांस्कृतिक ग्रन्थ वगैरह सब उसे अच्छे लगते हैं,और केवल अच्छे ही नहीं लगते औरों को अच्छा लगाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है,चाहे अपने वास्तविक पिता की कितनी भी बुराई करनी पड़े; उसे उसमे जो अच्छी से अच्छी बात भी होगी उसमे बुराई ही नजर आएगी, वरना; किसी भी पुत्र को कुछ देर के लिए हो सकता है गुस्सा आए और कोई बुराई भी नजर आए, पर कुछ देरमें वह शांत हो जाता है और पिता से उसे कोई शिकायत नहीं रहती।और पिता से मतभेद होने का मतलब ये भी नहीं समझता कि पूरे खानदान में बुराई ही नजर आए ।
मेरे एक दोस्त की शादी हुई और शादी के दिन से ही वह एक बात बोलता है कि अपने
पिता के पाँव छूने में शर्म लगती थी अब ससुर जी की चरणवंदना करनी पड़ती है। पर पिता के पाँव न छूने के बावजूद जितना सम्मान उनके प्रति है उतना ससुर जी के प्रति दिखावे में थोड़े ही है। लेकिन हमारे इन विदेशी पुत्रों के साथ ऐसा नही है,ये तो तन-मन-धन से, मन-प्राण-वचन-कर्म से इनका गुणगान करते रहते हैं जैसे_ पिछले दिनों किसी शिक्षण संस्थान ने अपने संस्थान में जींस की पैंट पर रोक लगा दी (जो शायद लड़कियों के लिए थी) बस हमारे यहाँ की विदेशी औलादों को मौका मिल गया ये सभी जगह पर हैं, ई. मीडिया में जो हैं, उन्होंने पहले इस ख़बर को इस तरह से उछाला कि जैसे तालिबान का हमला हो गया हो फ़िर कुछ ऐसे विशेषज्ञ बुलाये गए जो इनसे पुरानी औलाद थे एकाध स्वदेशी भी बुलाया था (अगर न बुलाएँ तो जीतने की संतुष्टि नहीं मिलती) फ़िर, वही हुआ जो होना था अपने असली बाप में बुराई ही नजर आई और विदेशी में अच्छाई नजर आनी ही थी (ये और बात है कि अगर विदेशी हमारी किसी बात को अच्छा बोल दें तो फ़िर ये उसके गुण गाने लगेंगे, लेकिन विदेशी बहुत चालू, सोच-समझ कर ही बोलते हैं जब तक हमारे यहाँ फूट न पड़ जाए नही बोलते)तो साहब किसी माई के ला ने यह नहीं कहा कि संस्थान अपना ड्रेसकोड लागू क्यों नहीं कर सकता । इनकी नजर में जींस शालीन पहनावा हो सकता है (जवान लड़कियों के लिए )पर इन्हीं लोगों की नजर में सेक्सी दिखना ही सुन्दरता है।( भई हमारी भारतीय सोच तो ये है कि सुन्दरता वो ,जिसे देख कर श्रद्धा पैदा हो) लेकिन इनकी सोच में जिस लड़की या महिला को देख कर सेक्सी विचार न पैदा हों वो सुंदर नही। फिल्मी लोगों द्वारा भी यही भ्रम फैलाया जाता है। सबसे ज्यादा इस सोच को बढ़ावा मिला टी.वी.चैनलों के खुलेपन से। हमारे यहाँ के आम जन में भी कई भ्रम जड़ जमा चुके हैं। खैर ,वो बात फ़िर कभी; अभी तो अंग्रेज औलादों(माफ़ करना विदेशी…) की बात चल रही थी, उन ड्रेसकोड विरोधियों से ये भी किसी ने नहीं पूछा कि संस्थान में जितनी देर के लिए वह आते हैं अगर जींस न पहने तो क्या उनके दिमाग में पढ़ाया हुआ नहीं घुसेगा। जींस के आलावा कुछ शालीन पहन कर आने को कहा गया था पर इन्होंने ऐसा बबाल बनाया कि जैसे बिना कुछ पहने आने को बोल दियाi हो । मैंने सुना कि कुछ होटल ऐसे हैं जहाँ साधारण वेशभूसा में नहीं जाने देते इन्होने आज तक कभी उन की खिलाफत नहीं की; कारण ,वे या तो विदेशी हैं या उनसे प्रभावित ....हैं।
किसी भी समाज में बुराइयाँ होती हैं इससे इनकार नहीं ,लेकिन इसका मतलब ये प्रभाव नहीं कि अच्छाइयों को भी बुरा साबित करने के लिए कुतर्कों के आधार पर बहस करो-करवाओ,महिला सशक्तिकरण,महिलाओं की आजादी पुरुषों से बराबरी के नाम पर भी इन्होंने अच्छे-अच्छों को भांग पिला रखी है, ऐसा माहौल बना रखा है जैसे भारत में आज तक महिलाऐं कैसे जिन्दा रहीं होंगी? जबकि मेरे अनुसार स्त्री-- स्त्री हैपुरुष--- पुरूष है ,और प्रकृति प्रदत्त दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं,स्त्री अगर पुरूष बनने की कोशिश करेगी, प्रकृति के तौर पर, तो किन्नर से अधिक कुछ नहीं बन पायेगी,ऐसे ही अगर पुरूष स्त्री बनने की कोशिश करेगा तो वह भी किन्नर जैसा ही लगेगा । ऐसे लोगों को इन्हीं में सबने देखा होगा। हमारे अनुसार तो दोनों प्राकृतिक तौर पर बराबर ही नहीं अपितु एक के बिना दूसरा बेकार है ।(दोनों का एक दुसरे के बिना अस्तित्व ही नहीं हो सकता) इन दोनों में बराबरी का सवाल कैसे खड़ा हो गया ? इन्होंने पैदा किया। कहते हैं कि किसी बात को बार-बार बोलो तो वह सही लगने लगती है ,चाहे भयंकर झूठ ही क्यों न हो। महिलाओं की भौतिक स्थिति (जो पुरुषों से प्राकृतिक भिन्नता के कारण भिन्न होती है ) देख कर ; इन्होंने ये प्रचारित किया कि महिलाओं के साथ अन्या हो रहा है और सदियों से हो रहा है ,उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता ,इसमे इनकी सहायक हुई कुछ बुराईयाँ जैसे सती प्रथा ,परदा प्रथा ,बाल विवाह
,विधवा का पुनर्विवाह न होना जैसी ही कुछ अन्य बुराईयाँ भी (जिनके विषय में मैंने पढ़ा, कि इतिहास में समय-समय पर किन्हीं कारणों से ये बुराईयाँ हमारे समाज में पैदा हुई, जैसे दुश्मनों से बचने को सती प्रथा या परदा प्रथा ) इन्होंने इन बुराईयों के साथ ही नारी सुलभ प्राकृतिक गुणों (शील , शर्म, संकोच,कोमलता )को महिलाओं की कमजोरी कहा,
और बार-बार कहा , जिसे आज लगभग सभी, सच मानने वाले मिलेंगे । वो तो हमारी संस्कृति -सभ्यता हमारे खून में समायी हुई है। वरना इन बड़े और ज्यादा पढ़े (वो भी विदेशी शिक्षा )लोगों ने कोई कसर
नहीं छोड़ी थी ,फिल्मों ,सीरियलों ,विज्ञापनों में तो इनकी कुंठित व सड़ी हुई मानसिकता सब देखते ही हैं इन्होंने खेलों तक को नहीं छोड़ा , इन पुरूषहीनों (अपने को पुरुषों से कम समझने वालियों )को या इन टी.वी. वालों को आज तक नहीं दिखाई दिया कि खेलों में महिला खिलाडिओं के खेल वस्त्र पुरुषों के खेल वस्त्रों से अलग तरह से बल्कि ये कहना चाहिए कि विशेष तौर पर डिजाईन क्यों किए जाते हैं । जो वस्त्र पुरूष के लिए सुविधाजनक हैं वह खेलों में महिलाओं के लिए कैसे असुविधाजनक हैं , आप टेनिस में ही देख लो पुरूष घुटनों तक निकर पहनते हैं और महिला खिलाड़ी मिनीस्कर्ट में ही खेलती है ,तैराकी में, एथलेटिक के किसी भी खेल में ,क्या इनकी मानसिकता का यहाँ पर पता नहीं चलता । एक तर्क (कुतर्क ) ये देते हैं कि अगर विदेशी पहनावा ठीक नहीं तो पुरुषों को भी पेंट-कमीज छोड़ कर धोती-कुरता या पजामा पहनना चाहिए। इनका सोचना ये है कि पुरूष अपने आप तो विदेशी फैशन के कपड़े पहनते हैं महिलाओं के लिए न पहनने कि वकालत करते हैं । पुरूष पेंट कमीज में अश्लील तो नहीं हो जाते फ़िर पुरुषों कि शारीरिक बनावट भी ऐसी है कि ज्यादा जल्दी अश्लील नहीं दीखते ,पर उनकी देखा देखी महिलाएं ये सोचें हम पुरुषों कि बराबरी करेंगी तो , किन्नर से ज्यादा कुछ नहीं लगेंगी । वो तो शुक्र है कि भारत में मुश्किल से दो-चार प्रतिशत ही ऐसी महिलाऐं होंगी । लेकिन वो मीडिया को हथियार बना लें क्योंकि मिडिया में नौकरी करती हैं ,उन्हीं के जैसे पुरूष मित्र उन्हें मिल जाएँ और भारतीय सभ्यता-संस्कृति को कोसें ,बुराईयों का विरोध होना चाहिए ठीक है ,लेकिन विदेशी बुराई का समर्थन इन लोगों कि मानसिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है ।
ये महिलाओं के प्राकृतिक गुणों को क्यों ख़त्म करना चाहते हैं
(जिन्हें वे स्वयं ख़त्म करना नहीं चाहती )
ये उन्हें बरगला कर विदेशियों का हवाला देकर ,पुरुषों से तुलना करके, बिना प्राकृतिक बनावट को ध्यान में रख कर ,उकसाते हैं ,मैं जनता हूँ ये कहते हैं कि महिलाएं स्वयं समझदार हैं उन्हें स्वयं करने दो ,यही बात मैं कहूँगा कि महिलाएं स्वयं समझदार हैं इसीलिए तो इनकी लाख कोशिशों के बाद भी एक दो प्रतिशत महिलाएं ही इनके जैसी हो पायीं ।
हमारा भारतीय समाज स्वयं समझदार है कोई भी बाप ये नहीं चाहेगा कि उसका लड़का या लड़की शराबी बने ,जुआरी बने ,व्यभिचारी बने, गुंडा-बदमाश बने(चाहे वह स्वयं इनमे से कुछ भी हो )इसी तरह कोई भी माँ नहीं चाहेगी कि उसकी औलाद खास कर लड़कियां उच्श्रंखल हों सुसंस्कृत माएं एक उम्र के बाद लड़कियों को आवश्यक निर्देश देने लगती हैं केवललड़कियों
को ही नहीं लड़कों को भी। इनका(विदेशी .....का) ये कुत्सित प्रयास समाज में महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ा रहा है, और ये तर्क देते हैं कि जो महिलाएं इस तरह से समाज में रहती हैं उनके साथ तो कुछ नहीं होता निचले तबके के साथ अपराध होता है जो असुरक्षित हैं ,ये मानने को तैयार नहीं कि इनके इस खुलेपन के व्यवहार से ही ये अपराध बढ़ रहे हैं जैसे पर्यावरण प्रदूषित कोई और कर रहा है भुगतना किसी और को पड़ रहा है ।





4 comments:

  1. राम चंदर कह गये सिया से....

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  2. भाई शंकर जी अब अंग्रेज ,अमेरिका और यूरोप मिल कर अपने वहीँ औलादें पैदा कर रहे हैं उन्हें यहाँ भेज देते हैं उनमें से कुछ नेता ,कुछ बुद्धिजीवी कुछ अधिकारी और पत्रकार बन जाते हैं . खैर आपने बहुत सही लिखा है इन लोगों की मानसिकता में ही खोट है लेख के लिए धन्यवाद

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  3. बहुत सही लिखा है.ये पौरुषहिना
    महिलाएं खुद तो अनैतिक हैं ही अपने को नैतिक ठहराने के लिए सभी को वैसा ही पाठ
    पढ़ना चाहती हैं . लिखे जाओ धन्यवाद

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  4. sabse pahle to maafi chahunga ki maine aapka blog 10 din late dekha.
    aapne wo har baat kah di jo main roj sonchta hun ya apne mitra-mandali mein charcha karta hun.
    aap apni baat ek blog k jariye se samjhane ki koshish kar rahe hai (jiske readers ki sankhya lagbhag nunyatam hogi). jabki in sabko sahi tahraya ja raha hai pure market plan ke sath, educated peoples ke dwara, knowledge (idiots) box ke dwara, aur tathakathit samaj sudharak (bigarak) ke dwara.
    khair wo apni koshish jari rakhein hum apni rakhenge.
    shayad koi ek bhi humari baat samajh le to main khud ko safal manunga.

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