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Wednesday, August 4, 2010

रुपये को पहचान मिल गयी , हम धन्य हो गए , पर दाज्यू के सामने ....

(रुपये को पहचान मिल गयी , हम धन्य हो गए , पर दाज्यू के सामने .... अपना सा मुहं लेकर रह गए)
जब से सरकार ने रुपये को अंतर्राष्ट्रीय पहचान (कटा हुआ ) के रूप में स्वीकार किया मेरा दिल बल्लियों उछल रहा थापर हमारे दाज्यू हैं ; उन्होंने मेरे उछलते हुए दिल पर मानो भारी वजन रख दिया इसलिए अब ...........

दरअसल हमारे दाज्यू ( बड़े भाई ) पढ़े लिखे तो हैं; परमानेनहीं जाते ! पता नहीं क्यों ? उनकी गतिविधियाँ भी वैसी ही हैं, समाचार पत्रों को वह देखते ज्यादा हैं पढ़ते कम इनमें विज्ञापन भरे होते हैं उन्हींका कहना है । समाचार चैनलों को भी केवल समाचारों के आने तक देखते हैं ; फिर कोई अन्य चैनल लगा लेते हैंउनका कहना है जिस कंपनी या वस्तु का विज्ञापन ज्यादा आता हो, उस वस्तु को तो बिलकुल खरीदना ही नहीं चाहिएइसीतरह उनका फार्मूला है; 'जितना बड़ा विज्ञापन ओर उसे करने वाला उतनी ही घटिया वस्तु' । यही बात वह सरकारी विज्ञापन ओर समाचारों पर भी मानते हैंउनके लिए तर्क भी देते हैं; 'कि सरकार खुशहाली के विज्ञापनों से जितना अपना प्रचार करती है उतना ही देश में गरीबी ओर बदहाली बढ़ रही है'कहते हैं, "कोई भी देख लो" ।

तो साहब मैंने जब दाज्यू को बताया; कि हमारे भारतीय रुपये को अब पहचान मिल गयी है, तो आज तक रुपया- रुपया नहीं माना जाता था क्या’ ? उन्होंने छूटते ही कहा । 'भई रूपये को आज तक रु. करके भी तो लिखते थे ; अब क्या इन्होंने उस पर चाँदसितारे जड़ दिए, जो "इस पहचान को विशेष" बता रहे हैं' 'पहले पर की मात्रा लगाकर पिछली कई पीढियों से हम उसे रुपया ही समझते रहे हैं; अब लिख कर उसे एक लाईन से काट देंगे, ये कोई पहचानवहचान का मामला नहीं है; ये अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी ने चक्कर चलाया है कि रूपये का कोई "मान" ( वैल्यू ) और सम्मान नहीं है, इसलिए इसके निशान को कटा हुआ बनवाया जाये'। और हमारे यहाँ के टटपूंजियों को ये समझ नहीं रहा कि लिख कर की मात्रा क्या बुरी थी जो लिख कर काट दिया इससे क्या "मान" (वैल्यू)बढ़ जायेगा ? पिछलग्गू ;"स्सानकलची"अरे ! दाज्यू डॉलर भी तो कटा हुआ है , 'अबे तो लल्लू उसका मान पता है कितना है' ? 'वो कटे या फटे , चलेगा ; हम.... नक़ल क्यों करते हैं' ?
साहब हमारा दिल, 'जो बल्लियों उछल रहा था पहले तो बिलांतों में गिरा फिर तो बिलकुल ही बैठ गया' । दाज्यू बड़ बड़ा रहे थे 'इस अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के चक्कर में हमने अपने जन्मदिनों में दिये जलाने छोड़ कर बुझाने की आदत डाल ली,अपनी देशी कुल्फी छोड़ कर आईसक्रीम खाना शुरू कर दिया, मिठाई की जगह हमें केक भाने लगा, भंगड़े की जगह डिस्को ने लेली, अपनी भाषा होने के बावजूद अंग्रेजी बोलने में मजा आने लगा, सबकी मत मारी गयी है'। ' दूर से नमस्कार करके बिमारियों से तो बचे रहते थे इन विदेशियों के चक्कर में हाथ मिलामिला कर छूत की बीमारियाँ मोल ले रहे हैं मुफ्त में' । …. और भी जाने क्याक्या , मैं तो अपना सा मुहं लेकर चला आयाअब आप ही बताओ क्या कहता या क्या कहना चाहिए ?

1 comment:

  1. check this out : http://www.saveindianrupeesymbol.org/

    Rupee symbol maker has DMK background

    http://www.thestatesman.net/index.php?option=com_content&view=article&id=334878&catid=36&Itemid=66

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