आज; मेरे परम मित्र और गुरु तुल्य, "आचार्य शुक्लजी" के साथ बैठे; वर्तमान हालातों पर चर्चा हो रही थी। बातों में बात आ गयी तो; उन्हें "बेताल कवि" का एक नीतिगत छंद याद आता चला गया, जो मुझे बहुत अच्छा लगा । मैंने अपने सभी ब्लोगर साथियों के लिए इसे ब्लॉग पर डाल दिया । कैसा लगा .......... ? अवश्य बताएं ।
मरै; बैल गरियार, मरै वह अड़ियल टट्टू ,
मरै; करकसा नार, मरै वह खसम निखट्टू,
बाम्हन; सो मरि जाय; हाथ लै मदिरा प्यावै,
पुत्र; वही मरि जाय, जो; कुल में दाग लगावै,
अरु; बे नियाव राजा मरै, तबै नींद भर सोईये,
बैताल कहै बिक्रम सुनो; इतै मरे नहीं रोईये ।
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