वेलेंटाइन डे का शोर चारों तरफ इस तरह मचाया इन समाचार चैनलों ने,जैसे दुनिया में लोगों को कोई और काम ही ना हो। पता नहीं इतना समय किसके पास है कि जो प्रेम का प्रदर्शन करने के लिए वेलेंटाइन डे की प्रतीक्षा करे,और इतना पैसा , कि सौ-दो सौ रूपये फूल पर खर्च करे । इससे भी बड़ी बात ये; कि उसका विरोध करने वाले भी ना जाने इतना समय कहाँ से जुटायेंगे ।
भई मेरी नजर में तो दोनों ही तरह के लोग समाज में फालतू होंगे, क्योंकि ना तो सामान्य आदमी के पास इतना समय है ना धन, कि वह प्रेम का प्रदर्शन करता फिरे। और यही बात इनका विरोध करने वालों पर भी लागू होती है।
लेकिन हमारे यहाँ के समाचार चैनलों ने इन फालतू लोगों के कारण अपना तो नाक में दम करा ही है जनता को भी इस तरह से डरा रखा है जैसे ना जाने कोई आसमान टूट कर गिरने वाला हो। चलो माने लेते हैं कि इनका कोई स्वार्थ होगा तभी तो सभी काँव-काँव एक सुर में बोलने लगते हैं।
बाजारवाद का जमाना है अगर ये बहती गंगा में हाथ ना धोएं तो कैसे इस महंगायी में अपना खर्च चलाएंगे , यही तो मौके होते हैं कमाने के, वर्ना भूखे रहने की नौबत आ जाए।
ऐसे डे- ओं का समर्थन ना करें तो क्या लट्ठ वालों का करें...? उनसे क्या मिलेगा; उनसे कौन सा बाजार या विदेशी कम्पनियां कुछ कमा रही हैं उन्हें तो ये जितना गरियायेंगे उतना इन्हें लाभ होगा।
ये अलग बात है कि उन्हें संस्कृति का ठेकेदार बताते-बताते ये स्वयं अपसंस्कृति के ठेकेदार बन गए हैं। ये नहीं समझ पाते।
बाकी जहाँ प्रेम का सवाल है तो जब साल भर कोई बंदिश नहीं है तो भाई केवल इसी दिन पर क्यों बबाल हो ?
आप सही रास्ते पर हैं, बड़ी बड़ी कंपनियों ने पहले एड्स बनाया, फिर महंगे कंडोम और गर्भ-निरोधक गोलियां. आज उनकी चल पड़ी है. इसी तरह वेलेंटाइन डे बनाया गया. इसबार भी उन्हें कंडोम, कार्ड्स एवं फूल आदि आदि बेचने हैं. मीडिया तो पैसे वालों की रखैल है.
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