पिता का जाना; जैसे , खुले सागर में नाव से बिछ्ड़ जाना ।
तैरना आता है फिर भी; नाव का सहारा होता है,
बुरा लगता है उसका; हमसे दूर चले जाना।
उन्होंने ही संसार दिखाया,मुझे मेरा नाम बताया,
खाना-खेलना, बोलना-पढ़ना,चलना-उछलना,गिरकर संभलना,
उनके द्वारा ही संसार रूपी सागर में, मैं; तैरना सीख पाया।
पिता का जाना, जैसे, भरे मेले में, अपना हाथ उनसे छूट जाना,
उन का जाना, जैसे, छतरी का अपने हाथ से छूट जाना।........
पिछला एक-डेढ़ माह कुछ इस तरह गुजरा कि शायद जीवन में भुलाये नहीं भूलेगा। पहले दिसंबर में हम सब दिल्ली गए, पिताजी से भी मिल कर आये थे, क्योंकि वह घर से अलग अपने बनाये मंदिर में रहते थे घर कभी-कभी आना होता था, तो उनसे मिलने वहीँ जाना पड़ता था। ठीक-ठाक थे तीन दिन लगातार
वे अठहत्तर वर्ष के थे। अपने पीछे पत्नी व चार बेटे दो बेटियों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं सभी अपने परिवारों में खुशहाल हैं।
बस पुकारने को अब पिताजी नहीं रहे ।
दुखद फुलारा जी , दिवंगत आत्मा को मेरी श्रदांजली ! यही जीवन का अंतिम सत्य भी है !
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