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Sunday, August 29, 2010

"तो ये है भगवान की माया"

भगवान की लीला
हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि;“ ये संसार तो सब भगवन की माया है” या लीला है,या खेल है। हमारी दादी-नानी चाहे अनपढ़ थीं, या मां-पिताजी थोड़े-बहुत पढ़े लिखे हों पर “इस बात” को वह भी कहते रहते थे और इस पर आधारित कई कहानियां भी शायद हम सभीने सुनी होंगी।
जो वैदिक या भारतीय संस्कारों में पला बढ़ा होगा उसने तो अपनी किशोरावस्था तक कई किस्से-कहानियां, ब्रह्मा -विष्णु – महेश-इन्द्र या आत्मा-परमात्मा के सुने होंगे । ये जीवन क्षण भंगुर हैये भी सुना होगा ।
क्षण भंगुर कैसे है ये जीवन, यह भी पता लगेगा पढ़ते जाईये
आईये में बताता हूँ कि हमारे पूर्वज, दादी-नानी आदि कितनी गंभीर बात को कहते थे
दरअसल मैं और आचार्य शुक्ल जी पिछले दिनों यूँहीं बैठे चर्चा कर रहे थे, तो बातों में बात आ गयी और चर्चा चल पड़ी; हमारे धर्म ग्रंथों पर, जिन्हें हम (भारतीय) सम्पूर्ण विश्व के लिए तो मानते ही हैं साथ ही उनमे विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान भी मानते हैं ।
चर्चाचर्चा में शुक्ल जी ने बताया कि आज वैज्ञानिक इस ब्रह्माण्ड के विषय में जो भी बता रहे हैं चाहे "महाविस्फोट" हो या इसके (ब्रह्माण्ड के ) निर्माण का काल हो, या भविष्य का काल हो; सब किसी ना किसी रूप में हमारी पौराणिक पुस्तकों में ज्ञान के रूप में दर्ज है

"ब्रह्मा का दिन"
चर्चा में मेरी जिज्ञासा भी बढती गयी जब मैंने "ब्रह्मा के दिन" के विषय में सुना और तब तो आश्चर्य का पारावार ही ना रहा जब; ब्रह्मा का महीना - साल के विषय में पता लगा ।
आज
जो भी घटनाएँ घट रहीं हैं; वो चाहे दैवीय हों या दानवीय हों, आसुरी हों या सात्विक हों, वैज्ञानिक अविष्कार हों या चिकित्सकीय चमत्कार हों, ये केवल आज कलियुग में ही हो रहे हैं ऐसा नहीं है, अपितु ऐसी ही सब घटनाएँ जाने कितने बार भूतकाल में घटित हो चुकी हैं हम सभी या ये दुनिया जो हर पल बदलती रहती है, जाने कितनी बार इससे पहले हो चुके हैं इस सबका वर्णन हमारे पौराणिक ग्रंथों में मिलता है |
जिन्हें हम हिन्दुओं के पौराणिक ग्रन्थ मानते हैं वह केवल हिन्दुओं के होकर सम्पूर्ण मानवों के लिए हैं; वैश्विक हैं , और केवल धर्म ग्रन्थ होकर इतिहास और विज्ञान के भी ग्रन्थ हैं इस विश्व की कोई भी विद्या ऐसी नहीं है जो इन पौराणिक ग्रंथों में हो
ये केवल एक दो घटनाओं पर आधारित घटनाक्रम से प्रभावित होकर लिखे गए; ऐसा नहीं है अपितु समय-समय पर घटे घटनाक्रम से प्रभावित होकर उससे मिलने वाले परिणामों के आधार पर लिखे गए इसी लिए हमें इनमे कहींकहीं पर एक ही बात का विरोध और समर्थन देखने को मिल जाता हैं
इन ग्रंथों की रचना की काल गणना , ‘जो आजकल के विद्वान् बताते हैंको मैं तो केवल अंदाज लगाना मानता हूँ।हालाँकि यह मेरा व्यक्तिगत दृष्टिकोण है, कोई आग्रह नहीं है। दरअसल जिस तरह अंतरिक्ष में नक्षत्र आपस मेंकरोड़ों मीलों की दूरी होने के बाद भी हमें पृथ्वी से एक समान दूरी पर दीखते हैं, उसी तरह हमारे ग्रन्थ भीअलग-अलग समय पर लिखे गए हैं, जिनमे हजारों - लाखों वर्षों का अंतराल है; पर हमारे लिए दिखने में वह नभके तारों के सामान हैं और ये भी सच है; जिस तरह अन्तरिक्ष की दूरी का अंत नहीं है उसी तरह समय या " काल"का भी कोई अंत नहीं है जब से ये पृथ्वी बनी है तब से ही काल गणना मानी जाती है जबकि उससे पहले भी वह विद्यमान था और बाद में भी रहेगा।
काल गणना
हमारे धर्म ग्रंथों के आधार पर काल गणना की सबसे बड़ी इकाई है "ब्रह्मा का दिन और रात" जिसे हम आम बोल चाल की भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त भी करते हैं और हमारे धर्म ग्रंथों में भी इसे कथाओं के द्वारा समझाया गया है।
ब्रह्माका एक दिन और रात"
जाहिर है ब्रह्मा को सृष्टिकर्ता माना गया है तो वह सबसे श्रेष्ठ और आदि “पुरुष” या वह शक्ति जिससे ब्रह्मांड निर्माण हुआ और अपने लिए बने नियम पर चल रहा है। पुरुष का एक अर्थ आत्मा भी होता है। जो सबसे श्रेष्ठ हो सबमें व्याप्त हो वह ही परम आत्मा यानि "परमात्मा" का दिन और रात
हमारे ग्रन्थ "अग्नि पुराण" के अनुसार
ब्रह्मा का एक दिन और रात = २८ मन्वंतर ( यानि १४ मन्वंतर का दिन और १४ मन्वंतर की रात)
एक मन्वंतर = ७१ चतुर्युगी
एक चतुर्युगी ( सतयुग,त्रेता,द्वापर और कलियुग) = ४३ लाख २० हजार वर्ष।
इन युगों का काल इस प्रकार है; सबसे पहले हम कलियुग को ले लें तो समझने और गणना करने में आसानी होगी।
कलियुग == लाख ३२ हजार वर्ष,
द्वापर == लाख ६४ हजार वर्ष ,
त्रेता == १२ लाख ९६ हजार वर्ष ,
सतयुग == १७ लाख २८ हजार वर्ष।
इस तरह प्रत्येक युग अपने से पिछले युग से लाख ३२ हजार वर्ष अधिक होता है। इस प्रकार एक चतुर्युगी बनी, और ऐसी ७१ चतुर्युगी का एक मन्वंतर बना, तब १४ मन्वंतर का ब्रह्मा का एक दिन और १४ मन्वंतर की ब्रह्मा की एक रात।
ब्रह्मा के दिन को कल्प भी कहते हैं, और इस समय "श्वेत वाराह नाम का कल्प" चल रहा है, इसी को ब्रह्मा का दिन भी कहते हैं। इस तरह तीस कल्पों का एक मास होता है । मतलब यह है कि जिस तरह से मनुष्यों का महीना होता है वैसे ही ब्रह्मा का भी महीना होता है।
इस समय इस मन्वंतर के सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं अट्ठाइसवे चतुर्युग के तीन युग बीत चुके हैं चौथा कलियुग चल रहा है इसके भी ५११० वर्ष बीत चुके हैं।
अब इसमें विशेष ध्यान देने योग्य बात ये है कि ; इन चौदहों मन्वंतरों का नाम भी दिया है और यह मन्वंतर सातवाँ है यह भी बताया गया है।
मन्वंतरों के नाम
क्रमश: इस प्रकार हैं स्वायम्भुव मन्वंतर, स्वरोचिष.. , उत्तम..,तामस.., रैवत.., चाक्षुष..,वैवस्वत..(वर्तमान),सावर्णि.., दक्ष सावर्णि.., ब्रह्म सावर्णि.., धर्म सावर्णि.., रूद्र सावर्णि.., देव सावर्णि..,इन्द्र सावर्णि मन्वंतर
आप बोर तो नहीं हुए ना ? अभी तो जनाब आपने ब्रह्मा के केवल एक दिन के विषय में जाना है | अभी तो जब आपको ब्रह्मा के महीने और साल का पता लगेगा तो स्वयं समझ जायेगा कि हमारे जीवन का सौ वर्ष का समय उसके आगे केवल एक क्षण का है | अभी तो मैं आपको "समय के समुद्र" या "समय का अन्तरिक्ष के दर्शन" कराने जा रहा हूँ |
समय (काल) का अन्तरिक्ष
चार युगों का एक चतुर्युग, इकहत्तर चतुर्युगों का एक मन्वंतर, चौदह गुणा दो मन्वंतर का एक दिन और रात, इस तरह से एक मास और एक वर्ष जिसे ब्राह्म मास और ब्राह्म वर्ष कहते हैंहम यहाँ पर केवल ब्रह्मा के एक दिन का मान दे रहे हैं आगे आप महीना और साल और सौ साल स्वयं बना कर समय के अन्तरिक्ष के दर्शन कर लें
ब्रह्मा के एक दिन और रात का मान ,६४,००००००० मानव वर्ष है
यह सब और इससे भी अधिक जानने के लिए अग्नि पुराण का गंभीरता से अध्ययन कर लीजिये।


Tuesday, August 24, 2010

"गिर्दा का जाना" श्रद्धांजलि “ पुनर्जन्म फिर इसी पहाड़ में हो”

गिर्दा का जाना....जैसे एक मुकम्मल इन्सान का जाना हैमेरी नजर में वे एक वास्तविक "इन्सान" थेमैंने उनके गीतों से ही उन्हें जानाजब "उत्तराखंड" के लिए होने वाले आन्दोलनों में उनके जन गीतों को गाया जाता थाऔर उनमें से मुझे एक गीत तो अत्यंत अच्छा लगता है; घुनन मुनई ना टेक, ततुक नी लगा उद्येख, जैंता एक दिन तो आलो दिन यो दुनी में.... जैंता एक दिन तो आलो….. । ये गाना गाते हुए मेरा गला भर आता है

उन्होंने पीड़ित जन की आवाज को जितनी सहज भाषा में गाने के लिए बनाया उतना ही सहज जीवन भी जिया।उनके तेवर हर प्रकार की बुराई के विरोध में रहे चाहे सामाजिक बुराई हो राजनीतिक हो या सरकारी, इसीलिए वह लगभग सभी आन्दोलनों में भागीदार रहे । उनके गीतों को भी सभी ने अपने आन्दोलालों का हिस्सा बनाया अपने जनगीतों के माध्यम से वह हमेशा समाज को याद आते रहेंगे । मेरी तरफ से यही उनको श्रद्धांजलि है कि उनका पुनर्जन्म फिर इसी पहाड़ में हो और वह अपने जाने से पैदा हुए शून्य को स्वयं ही भरें ।

Sunday, August 22, 2010

"भारत की संसद कौरवों की उस सभा" जैसी

हमारे माननीयों ने अपना वेतन बढ़ाने के लिए तन-मन एक कर लिया, विरोधी भी बैर भूल कर एक हो गए | क्यों ना हों ? इतिहास गवाह है हमारे कई अय्यास राजाओं ने अपने राजपाट और सुख सुविधा के लिए दुश्मनों को अपने खेमे में लाने के लिए अपना जमीर और देश तो क्या अपनी बहन बेटियों तक तो उनके हवाले कर दिया | तो ! ये तो कलयुगी हैं , उनसे अधिक बेशर्म होना तो आज का चलन है इसीलिए । ये कहते हैं ; "हमारा वेतन बढाओ"........।
संविधान में कहाँ लिखा है कि सांसद का वेतन कितना होना चाहिए ? और कहीं लिखा भी है तो नादान - निरीह जनता को क्या पता | उससे भी बड़ी बात कि अगर पता भी है तो क्या कर लेगी ? जब कोई गुंडा, मवाली, छुरेबाज, किसी साधारण से आदमी को छुरा दिखा कर लूट लेता है तो वह क्या कर पाता है ? अगर पुलिस वालों के पास रिपोर्ट करने जाता है तो वहां भी लुटता है और अपना सा मुहं लेकर वापस जाता है | ऐसा ही कुछ इस "सांसदों के वेतन" मामले में हो रहा है इसमें तो किसी से शिकायत भी नहीं कर सकता क्योंकि ये तो स्वयं सर्वेसर्वा हैं | सर्वेसर्वा होने के साथ ही कई तो "वैसे भी नामी गिरामी" हैं | कौन पंगा मोल ले ? फिर ! संवैधानिक मामला है भई, जो कुछ हो रहा है संविधान के दायरे में ही हो रहा है | पर इस मामले पर मेरा उक्त पोस्टर यहाँ टेंशन पॉइंट तिराहे पर काफी चर्चित हो रहा है | लोग कहने रहे हैं कि सही लिखा है आपने, पहले ही हम महंगाई से त्रस्त हैं चौसठ प्रकार के टैक्स भुगत रहे है इनकी अय्यासियों के लिए अब किसी और टैक्स की मार पड़नी जरुरी है | ये सड़ता हुआ अनाज जनता को मुफ्त या सस्ता नहीं बेच सकते , ये टैक्स कम नहीं कर सकते, इनके पास बेरोजगारों के लिए रोजगार देने को बजट नहीं है, अस्पतालों में डॉक्टर रखने के लिए धन नहीं है, स्कूलों में अध्यापक रखने के लिए धन नहीं है पर अपने लिए जितना कहो उतना हो जायेगा | धन्य है "भारत की संसद कौरवों की उस सभा" जैसी जिसमे भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य जैसे महान माने जाने वाले व्यक्तित्व बैठे हुए थे और द्रोपदी का चीर हरण हो रहा था | सच में; उन्होंने तब कल्पना भी नहीं की होगी कि हमारे नाम पर किस तरह का कलंक लगेगा, काल के इतिहास में | ऐसा ही कुछ आज भी हो रहा है कई भीष्म और द्रोण चुप बैठे हैं जमाना इन्हें धिक्कारेगा | अच्छा है ! होने वाले आन्दोलन के लिए इस तरह की सब घटनाएँ खाद-पानी की तरह लाभ करती हैं | जितना अन्याय होता है जनता में उतना ही अधिक विचलन होता है |