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Wednesday, September 30, 2009

चलो दिलदार चलो

चलो दिलदार चलो
चाँद के पार
(मंगल पर) चलो
हम हैं तैयार चलो ,
मिल गए चलने को साथ
कुछ मित्र,
और हैं तैयार चलो
लगते भी हैं काफी होशियार चलो
चलो दिलदार चलो
चाँद के पार
(मंगल पर) चलो।
मेरी पोस्ट ....... दुनिया ख़त्म........ पर आयीं टिप्पणियों से पता लगा कि चाँद के पार चलने को सभी तैयार हैं। सुनील रावत जी काजल कुमार जी, प्रदीप कान्त जी और पं.डी. के. शर्मा वत्स जी को तो साथ लेजाना मुश्किल है, क्योंकि उड़नतश्तरी में दो की जगह ही खाली है , उसे उड़नतश्तरी वाले बिना बोली लगाये नही देने के , तो मैं सोच रहा हूँ कि अविनाश जी (वाचश्पति) को साथ लेजाया जाए, क्यों कि इनका सुझाव बहुत अच्छा है कि "पानी यहाँ से क्या लेजाना , रास्ते में चाँद पड़ेगा वहां से लेलेंगे"
बहुत अच्छा लगा ऐसे ही नए सुझाव वाले व्यक्ति को साथ लेजाना लाभकारी है।
अविनाश जी, रस्ते में सेटेलाईट भी मिलेंगे उनका मुहं उधर को ही करते चलेंगे ताकि ब्लोगिंग कर सकें। और भी मजेदार सुझावों का इन्तजार रहेगा। दुनिया के ख़त्म होने का इन्तजार.. ओह नहीं .. ! माफ़ करना
(दुनिया कभी ख़त्म न हो) मंगल पर जाने की तैयारी करते हैं।

Monday, September 28, 2009

ब्लॉगवाणी बंद ...... क्यों ?

ब्लॉगवाणी हम को पीछे छोड़ कर आगे चला गया .... विश्वास नहीं होता उसमे लिखा है "आगे जाने का समय आ गया"। बड़ा दुःख हुआ । हम तो अभी शुरू ही हुए थे । पता नहीं क्या हुआ क्यों हुआ ? अच्छा एग्रीगेटर था। खैर... जो हुआ- होना होगा ।

जब जलाना है तो बनाना क्यों

रावण जलाते हैं हर वर्ष
हम
फ़िर बना लेते हैं अगले वर्ष

विजय दशमी की शुभकामनायें
पर
इस बात पर गौर फरमाएं

Sunday, September 27, 2009

अगर २०१२ में दुनिया ख़त्म होगी तो......

कैसे-कैसे समाचार और आशंकाएं संसार में व्याप्त हैं
एक तरफ़ दुनिया ख़त्म होने की आशंका है ,तो दूसरी तरफ़
मंगल पर शुरू होने की आशा भी है। अब अगर २०१२ में दुनिया ख़त्म होगी तो चिंता नहीं मंगल
पर चले जायेंगे। कुछ दिन का पानी व ऑक्सीजन का कोटा
लेजाना पड़ेगा। फ़िर आदत पड़ जायेगी ,खाने के लिए नवरात्रे
मान कर उपवास कर लेंगे।
ठीक है न ।

मास्टरजी की नेतागिरी

मास्टरजी भई मास्टरजी , कैसे होगी अब नेतागिरी।
अब तो स्कूल में जाना पड़ेगा , बच्चों को पढ़ाना पड़ेगा।

काम की रोटी खानी पड़ेगी , सम्मान का जीवन जीना पड़ेगा ........ ।

बचपन में एक गाना गाते हुए हम बच्चे खेलते थे,
“पोसमपा भई पोसमपा , डाकिये ने क्या किया ।
सौ रूपये की घड़ी चुरायी ,अब तो जेल में जाना पड़ेगा
जेल की रोटी खानी पड़ेगी ,जेल का पानी पीना पड़ेगा" ..... इत्यादि-इत्यादि । और भी आगे जाने क्या-क्या था इस गाने में ,
आज अपने जिले (अल्मोड़ा) के शिक्षा अधिकारी के द्वारा किए जा रहे सुधारवादी कार्यों को देख कर वही गाना याद आ गया । बस शब्द बदल गए । इन शिक्षा अधिकारी महोदय ने वास्तव में अपने अधिकारों-कर्तव्यों को जाना है। नाम से भी टी.एस.अधिकारी ने कुछ ही दिन में जिले के सरकारी शैक्षणिक माहौल में नई उर्जा भर दी है । इनके इन कार्यों से जो कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक थे उनमें तो उत्साह है लेकिन जो कर्तव्यों से विमुख थे और नेतागिरी के दम पर केवल अपने अधिकारों की बात करते थे
जिनके कारण कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों का सम्मान भी आम जनता में कम होता जा रहा था , उनके कस-बल जरुर ढीले पड़ गए हैं।
वे अपने आकाओं (विधायकों-सांसदों) के कान भरने
लगे होंगे लेकिन , अगर ऐसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी पर कोई दबाव बनाया गया तो जनता उन नेताओं को भी कभी माफ़ नहीं करेगी।

Wednesday, September 23, 2009

मेरा पूरा tensionpoint देखें

Friday, September 18, 2009

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली ……

केन्द्र सरकार की दिखावे को ही सही अतिव्ययता को मितव्ययता में बदलने की कोशिश का स्वागत होना चाहिए , क्या पता दिखावे के फैशन की तरह यह भी फैशन (चलन) बन जाए ।
वरना आजादी के बाद तो बिल्ली ने इतने चूहे खाए हैं कि अब ये अगर पूरे पचास साल तक मितव्ययता बरतें, लगातार , तब इनपर विश्वाश होगा । वरना तो, ऐसा ही लग रहा है कि
अब चूहे खाने मुश्किल होगये हैं इसलिए ये दिखावा करना पड़ रहा है।

लेकिन पार्टी के बड़े नेता बेशक अपने खर्च कम कर देंगे , पर उनका क्या होगा जो राजनीति में आते ही अय्याशी के लिए हैं । उन अधिकारीयों का क्या होगा जिनके खून में कई पीढियों के लिए फिजूलखर्ची समां गई है।
इनके साथ ही एक चिंता और सता रही है कि उन पाँच सितारा होटलों-रिसौर्टों, बड़ी-बड़ी हवाई कम्पनियों व इनसे जुड़े पेशेवर कर्मचारियों का क्या होगा ?
अगर ये मितव्ययता वाला फैशन चल पड़ा तो जिन अय्याशो के दम पर ये सब टिके हुए हैं बेकार हो जायेंगे ।

आंखों देखी गुंडा गर्दी

"उ.प्र.पुलिस व परिवहन निगम के चालकों की"

स्थान … दिल्ली का आनंद विहार बस अड्डा__ हमारी उत्तराखंड परिवहन निगम की बस भर चुकी थी, चलने का समय पन्द्रह मिनट पहले हो गया था लेकिन चालक बाहर ही दिखाई दे रहा था।
यात्री बार-बार बस को चलाने को कह रहे थे चालक उन्हें समझाता कि बाहर तो जाम लगा है मैं गाड़ी चला कर ले कहाँ जाऊं, आख़िर यात्रियों की जिद से हमारा चालक तो अपनी जगह पर बैठ गया गाड़ी मोड़ कर बहार निकलने वाले रास्ते पर ले आया पर जब वहां पर खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो हम कुछ लोग उतर कर देखने चले गए कि मामला क्या है , और जब कुछ आगे जाकर देखा कि उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की तीस-चालीस बसें इस तरह से सटा के अड़ा के खड़ी कर रखीं हैं कि जैसे हड़ताल कर दी हो और अभी उनके पीछे से उस रास्ते से बसें आ रहीं थीं, जिस रास्ते से बसों को बाहर निकलना होता है , और चालक; कुछ आपस में हँसी-मजाक और कुछ अपनी-अपनी बसें आगे पीछे करने को उलझे हुए थे। कोई-कोई चालक तो बस ग़लत दिशा में खड़ी कर के स्वयं लापता था । वहां न बस अड्डे के प्रबंधकों का कोई इंतजाम था न दिल्ली पुलिस का , कुछ ठीक ठाक चालकों से मालूम हुआ कि पुलिस होती तो ये उनकी भी नहीं सुनते , वह इस प्रकार की स्थिति देख कर मुहं छुपा कर खिसक लेते हैं दिल्ली सरकार और बस अड्डे के प्रबंधन का हाल तो वैसे ही दिखाई देता है इतनी गन्दगी जैसे महीनों से सफाई न की हो इतनी टूट-फुट जैसे सालों से कोई देख ही न रहा हो।
तो साहब वहां से लगभग एक घंटा देरी से निकले और चल पड़े , लेकिन गाजियाबाद से पहले कुछ पुलिस वालों ने इकट्ठे ऐसे हाथ दिए जैसे उन्हें डर हो कि चालक बस भगा कर न ले जाए। खैर बस के रुकते ही चार-पॉँच खाकी वर्दी धारियों ने इस तरह से धड़ा धड़ अन्दर घुस कर लोगों के सामानों पर हाथ लगा-लगा कर पूछना शुरू कर दिया कि जैसे धावा बोलना या छापा मरना होता है या अपराधियों पर मनोवैज्ञानिक डर बैठाने के लिए ऐसा किया जाता है।“ये अटैची किसकी है… खोल, अरे…. सुना नहीं ये ब्रीफकेश किसका है… खोलता क्यों नहीं… खोल इसे फटाफट, ये बैग किसका है… क्या भर रक्खा है इसमे….दिखा” इस तरह से बस में बठे सभी यात्रियों के सामानों की जाँच की गई और मिला क्या एक यात्री के बैग से एक बोतल शराब की, बस, पुलिस वालों की बांछें खिल गयीं। वह उसे लेकर उतरे साथ ही जिसकी वह बोतल थी उसे उतरने के लिए कह कर “आजा भई आजा” उसे लेकर चले गए जब दस मिनट हो गए तो मैंने भी जाकर देखा कि वो आबकारी विभाग की चौकी थी करीब आठ-दस पुलिस वाले उस आदमी से बहस करने में लगे थे कि “तुझे पता नहीं शराब लेजाना गैरकानूनी है”पुलिस वाले अपने संस्कार भूल जाते हैं आम आदमी से बात करते समय , वह आदमी उस पुलिस वाले से उम्र में बड़ा होगा ,बोला, जनाब एक बोतल ही तो है हम तो जब भी जाते हैं एकाध बोतल ले ही जाते हैं ,फ़िर हमें पता ही नहीं कि शराब ले जाने पर पाबन्दी है , पुलिस वाले का कहना था “एक ही बोतल है मत बोल… तुझे पता नहीं बन्दूक की एक ही गोली आदमी की जान लेलेती है” मेरे साथ और भी दो-तीन लोग वहां पर आ गए थे जब हम में से कोई बोला कि एक बोतल ले जाने पर कब से पाबन्दी लग गई तो वह खा जाने वाले अंदाज में घूरते हुए बोला कि “तू क्या कोई हमारा अफ़्शर है….
चल यहाँ से बस में बैठ” न बोलने की तमीज न शक्ल से ही शरीफ पता नहीं पुलिस वाले थे या कोई…… क्योंकि पिछले दस पन्द्रह साल में पुलिस वाले कमसेकम बोलने की तमीज तो सीख गए हैं, और पिछले इतने ही समय से मैंने ऐसी चैकिंग भी नहीं देखी ।
तो साहब काफी बहस-मुबाहस के बाद आख़िर जिनकी वह बोतल थी उन महाशय ने उनसे बोतल ली और वहीं पीछे की तरफ़ उसे खोल कर शराब फैंक दी , जिसकी कि उन महोदय ने जिद कर रखी थी कि बोतल छोड़ कर नहीं जाऊँगा या तो फैंक कर जाऊँगा या लेकर जाऊँगा। पुलिस वालों के मुह लटक गए कि न माया मिली न रम (बोतल) । मेरी समझ में नहीं आता कि आम आदमी कहाँ जाए नेताओं में गुंडे बदमाश, पुलिस तो पहले ही अपने गुंडा धर्म के लिए जानी जाती है इस तरह की गुंडा गर्दी के लिए क्या कुछ हो सकता है ? सरकारें अपनी बेशर्मी कब छोडेंगी या उन्हें अपनी शक्तियां कब याद आएँगी ? क्यों आम आदमी के मन में सरकारे अपनी जोकरों वाली छवि बना रहीं हैं

Sunday, September 13, 2009

नेताओं से नैतिकता की अपेक्षा क्यों...?

हम आजकल नेताओं से नैतिकता की अपेक्षा करने लगे हैं।
वो भी उस पार्टी के नेताओं से जिसका भारत पर सबसे अधिक प्रभाव व सबसे अधिक राज रहा है। जाहिर है, कि अनैतिकता फैलाने में भी सबसे अधिक योगदान उसी पार्टी का होगा, उसके नेताओं का होगा। अब आज क्यों हमारे बुद्धिजीवी, हमारे न्यूज चैनल उन नेताओं से ये अपेक्षा करते हैं कि वे नैतिकता दिखाएँ ?
इस देश की जनता नैतिकता दिखाने वालों को तुच्छ समझती है , जो स्वयं अय्याशी नहीं कर सकता वह आम आदमी का क्या भला करेगा, जब स्वयं अय्याशी करेगा तब कमसेकम आम आदमी के लिए दो रोटी की सोचेगा , जो ख़ुद ही दो रोटी पर गुजारा करता होगा वह आम आदमी को क्या देगा, आम आदमी के हिस्से तो आधी रोटी भी नहीं आनी ।
नैतिकता वो भी नेताओं से , जिन्होंने स्वयं कमाया है ,
कोई जनता की कमाई थोड़े ही अय्याशी पर लुटा रहे थे जनता की कमाई तो सरकार लुटाती है, तब इन्हें (न्यूज चैनलों व बुद्धिजीवियों को) नहीं समझ आता कि क्या कहें। क्योंकि इन्हें विज्ञापनी बजट में हिस्सा मिल जाता है ।
नेताओं की बात छोड़ दें तो कई अन्यों की इसी तरह की अनैतिकता के दायरे में आने वाली बातों को ये (न्यूज चैनल ) खूब प्रसारित करते है ,क्रिकेटरों की एक-एक करोड़ की कारें , करोड़ों के बनते मकान व उनके अन्य खर्च , जो अय्याशी की श्रेणी में आते हैं ,
और कमसेकम इन खिलाड़ियों के लिए तो बिल्कुल ही अनैतिक हैं क्योंकि ये आम आदमी के बीच से और आम आदमी के कारण करोड़ों कमा रहे हैं, अगर आम आदमी इनके खेल और विज्ञापन न देखे तो इनका क्या होगा। लेकिन इन लोगों (न्यूज चैनलों को) नहीं दीखता ,
जब हमारी सरकारें अपने सांसदों-विधायकों-अधिकारीयों-कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने को निर्लज्जता से नियम बनाते हैं
क्या वो अनैतिकता नहीं है ? आम आदमी के लिए तो सौ रूपये रोज वो भी साल में केवल सौ दिन ,मतलब ,साल में दस हजार मात्र। इसमें अनैतिकता नहीं दिखती। नेताओं के पीछे पड़े रहते हैं। बड़े आदमी नेता बनते हैं जिन्होंने जिंदगी पंचसितारा होटलों में ही काटी है, वह हमें लगती है अय्याशी, उनके लिए तो जिंदगी की जरुरत है जैसे हमें जीने के लिए रोटी चाहिए –उन्हें जीने के लिए पंचसितारा होटल चाहिए। नैतिकता-अनैतिकता पर बहस करनी थी तो तब करते जब इन जैसे उद्योगपतियों को या पैसे वालों को राजनीतिक पार्टियाँ अपने हित में सांसद या विधायक बनाती हैं , अब इस बात पर गाल बजा कर कोई फायदा नहीं अगर यही लोग या इनकी कम्पनियां तुम्हें विज्ञापन दे देंगी तो सब एकदम चुप हो जाओगे । बाकी रहा आम आदमी, उसके लिए तो ठीक ही है ,जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय। अब तो राजनीति में लोग आते ही अनैतिकता के लिए हैं । नैतिकता स्थापित करने का ठेका अगर नेताओं को दे दोगे तो काम चलना मुश्किल होगा ।

Monday, September 7, 2009

धौनी की कमाई

बाजारवाद का कमाल है वरना कौन पूछ रहा है ।
धौनी की कमाई सब देख रहे हैं खर्चे कोई नहीं देखता। जबकि अभी कमाई का आंकड़ा हाफ सेंचुरी भी पूरा नहीं हो पाया। सेंचुरी के लिए तो अभी पूरे इक्यावन करोड़ और चाहिए।
ये तो ऑन रिकॉर्ड आंकड़े हैं ऑफ रिकॉर्ड , क्या पता पूरी सेंचुरी हो।
लेकिन जनाब इतने में भी पूरा कहाँ पड़ता है। अब हाफ सेंचुरी वाले आंकड़े को ही ले लें तो इसमें से कई करोड़ तो आयकर में ही चला जाता होगा, बचे कुछ करोड़ों में से अभी उनका मकान निर्माणाधीन हैं,जाने कितने करोड़ का बजट होगा,अब आम आदमी की तरह का मकान तो होगा नहीं, न जाने कितने विशेषज्ञ होंगे जिनकी फीसें ही करोड़ों में होगी। फ़िर मकान बनते-बनते बजट लगभग दोगुना हो जाता है। पहले की बात और थी आम आदमी की तरह थे एक कमरे के मकान में भी गुजारा हो जाता था। तो अपने नाम के अनुरूप पूरा stendard देखना पड़ता है। फ़िर अन्य खर्चे भी हैं गाड़ी भी एक करोड़ की खरीदनी जरुरी है। मोटर बायिकें तो कई चाहिए , क्या होता है उनंचास करोड़ से, जैसी हेसियत-वैसा खर्चा, ये भी कम ही पड़ता है चिंता में घुले रहते हैं जब खेल नहीं पाएंगे तब क्या होगा कौन देगा। इन सारी बातों को कोई नहीं देखता-कमाई सब देखते है, इस कमाई के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं तुम्हें क्या पता। इस पैसे के लिए कितना झूठ जीना पड़ता है । विज्ञापनों के लिए ,
अपनी आत्मा तक को नजरअंदाज करना पड़ता है जब बेकार वस्तु का विज्ञापन करना पड़ता है जिससे बेचारे देश के भोले लोगों को कोई फायदा नहीं, उल्टा नुक्सान ही होता होगा। फ़िर ये अकेले धौनी की बात नहीं है जितने भी क्रिकेट के कारण इस देश में "भागवान" बने हैं सबकी बात है । बाजारवाद का कमाल है वरना कौन पूछ रहा है।

Saturday, September 5, 2009

विश्वास नहीं होता न......होगा .... होगा

सर्वप्रथम वायुयान का आविष्कार १९०३ में राइट बंधुओं ने नहीं किया ……, वरन, उससे पहले ,
१८६५ में तारपांडे दंपत्ति ने मरुत्सवा नामक सौर उर्जा से उड़ने वाला वायुयान बनाया था ।
विश्वास नहीं होता न …… अभी तो और झटके खाने को तैयार रहिये ।
न्यूटन से भी ५०० वर्ष पूर्व ही गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज हो चुकी थी , जिसे "भास्कराचार्य" ने किया था। आज जिस परमाणु को लेकर बड़े-बड़े देश और उनके वैज्ञानिक चमत्कृत हैं
उस परमाणु की खोज हजारों साल पहले हमारे महर्षि, "कणाद" कर चुके थे।

विश्वास नहीं होता न …….,
होगा भी नहीं , क्योंकि , ये हमें अंग्रजों ने नहीं बताया।
"हमारे लिए ज्ञान के कपाट तो अंग्रेजों ने ही खोले हैं , उससे पहले तो हम लिखना पढ़ना भी नहीं जानते थे"। जो, आज भी ऐसा ही सोचते हैं वह इन बातों पर विश्वास नहीं करेंगे , उनकी आंखों पर चढ़ा चश्मा अपनी जगह बना चुका है ,वह खांचे में फिट हो गया है। जिसे अब खींच कर निकलने पीड़ा भी होती है, जिंदगी भर जिस बात का नमक खाया अब उसको कैसे झूठ मानें।
लेकिन सच तो सच ही होता है, जिस तरह अंधेरे में ये कह देने से कि सूर्य होता ही नहीं है , सुबह होने पर स्वत: झूठ साबित हो जाता है। लेकिन फ़िर भी जिसकी आँखें बंद हो उन्हें अँधेरा ही दिखेगा।
कहते हैं की किसी भी आविष्कार के लिए पहले कल्पना होती है तब
उस कल्पना के आधार पर आविष्कार होता है , जैसे पक्षियों को उड़ते देख कर ये कल्पना हुयी क्या हम भी उड़ सकते हैं । जिन बातों की कल्पना आज वैज्ञानिक करते हैं या बनाने की बात करते हैं, हमारे प्राचीन ग्रंथों में तो आज के जितने आधुनिक यन्त्र हैं , उनका उपयोग करते हुए प्रर्दशित किया हुआ है। इन ग्रंथों की
प्राचीनता को तो आज पुरी दुनिया मानती है।
जैसे कुबेर का पुष्पक विमान जिसे रावण और बाद में राम ने भी
इस्तेमाल किया था। राम- रावण युद्ध में जितने प्रकार के बाणों और अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग हुआ था ,वैसे हथियारों की आज के वैज्ञानिक अभी कल्पना भी नहीं कर सके हैं ।
अग्नि बाण-आग बरसाता था , वरुणास्त्र जल की इतनी वर्षा करता था कि शत्रु घबरा जाता था , इनसे भी आगे ऐसा बाण कि जिस पर छोड़ा वह जल-थल-नभ कहीं भी दौड़े वह उसे मारने के लिए पीछे पड़ा रहा, जब तक वह (इन्द्र का पुत्र जयंत ) श्रीराम के पैरों में गिर कर माफ़ी नहीं मांग लेता तब तक वह उसके पीछे लगा रहता है । विश्वास नहीं होता न ।
होगा, बस वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से सोचना-देखना शुरू कर दो ।
भारतीय धर्म ग्रंथों की विशेषता ही यह है कि आध्यात्म के साथ ही इनमें विज्ञान भी है , जिन मंत्रों को हमें देवताओं की आराधना के लिए बताया है उन्हीं मंत्रों में विज्ञान की परिभाषाएं भी बनती हैं । बस दिमाग पर पड़ी धूल झाड़नी पड़ेगी ,शुरु में कुछ किताबें पढ़नी पड़ेंगी जैसे, श्री नरेन्द्र कोहली की रामायण पर आधारित राम कथा के दोनों भाग, आचार्य चतुरसेन की वयं रक्षाम: गुरुदत्त का तो कोई भी उपन्यास जो थोड़ा बड़ा हो पढ़ लो ,अपने आप विदेशी चश्मा उतर जाएगा सब कुछ समझ आने लगेगा , कि प्रतीकों व अलंकारों के द्रष्टिकोण से जो कहानियाँ हमारे ग्रंथों में लिखी हैं उनका वैज्ञानिक तरीके से भी निष्कर्ष बनता है । जैसे भगवान् शिव के गंगा को अपने सर पर धारण करने का मतलब ये है कि उन्होंने अति प्रबल वेग वती गंगा को अपने दिमाग से शिवालिक की घाटियों में इस तरह घुमाया कि उसका वेग बहुत कम हो गया वरना,कहते हैं कि वह पृथ्वी के अन्दर चली जाती। क्या शिवजी एक वैज्ञानिक नहीं थे...? राजा भगीरथ स्वयं या उनके द्वारा नियुक्त लोग वैज्ञानिक नहीं थे, जिन्होंने ये जान लिया था कि गंगा के पानी में अमृत के सामान शक्ति है और इसे पृथ्वी पर जनसामान्य के लिए लेजाना चाहिए।
वैज्ञानिक तो थे ही, परोपकार की भावना भी थी ।
महर्षि भारद्वाज के ग्रन्थ वैमानिक शास्त्र को पढ़ कर तारपांडे दंपत्ति ने उपरोक्त विमान बनाया था जो सौर उर्जा से उड़ता था , कहते हैं भास्कराचार्य ने सिद्धांत शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की उसमें गोलाध्याय भाग में ये बताया कि पृथ्वी गोल है । आज के भूगोल वेत्ता जिन ग्रह नक्षत्रों की दूरी और गति को बड़े-बड़े यंत्रों द्वारा बताते हैं हमारे वैज्ञानिकों ने तब उन दूरियों व गतियों के बारे में जान कर समझ लिया था ,शायद तब तक यूरोप वाले सामाजिक जीवन जीना शुरू भी नहीं कर पाए थे ।
जिन्हें हम वैज्ञानिक कहते हैं वही ऋषि कहलाते थे , ऋषि विश्वामित्र ने ही राम-लक्ष्मण को कई प्रकार की युद्ध विद्याएँ सिखायीं थी । कौरव-पांडवों को भी गुरु द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या में निपुण किया था । ये सब ऋषि कहलाते थे ,ये ही अविष्कार करते और ग्रन्थ लिखते थे ।
बहुत लंबा लेख हो गया अब बंद करता हूँ इस विषय पर फ़िर कभी दोबारा लिखूंगा बहुत ही रोचक व अंतहीन विषय है । पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद ।

शिक्षक दिवस

(हमारा शिक्षक चिंताओं से तनावों से त्रस्त है)
आज के बच्चे क्या सीखें शिक्षकों से, अपने अधिकारों नाम पर कैसे हड़ताल करना या ब्लैकमेल करना , कैसे संगठन का नेता.......................................

पहले के जिन शिक्षकों को हम आदर्श के रूप में आज अपने बच्चों को बताते हैं अगर वैसे शिक्षक आज इक्का-दुक्का कहीं हैं भी तो अपनी जमात में हँसी या उपेक्षा का पात्र बने हुए हैं ,"आदर्शवाद" आज के समय में "सम्मानजनक" नहीं "मजाक" का शब्द बन गया है । आज के शिक्षकों में, जो मैंने देखा है उठते-बैठते,सोते-जागते,पढ़ते-पढ़ाते हर समय अपने वेतन-भत्तों ,प्रमोशनों के हिसाब लगाने में ही रहते हैं ,या फ़िर आयकर बचाने या भरने के कारण चिंता में रहते हैं । अभी संगठनों की राजनीती की दौड़-भाग अलग है । हमारा शिक्षक चिंताओं से, तनावों से त्रस्त है। इसीलिए शायद अन्यों के मुकाबले ज्यादा रोगग्रस्त है।
आज के बच्चे क्या सीखें शिक्षकों से ? अपने अधिकारों के नाम पर कैसे हड़ताल करना या ब्लैकमेल करना , कैसे संगठन का नेता बनना , ये कहना कि कर्तव्यों की बातों से केवल पेट भर सकता है, नेताओं-ठेकेदारों या उद्योगपतियों की तरह गाड़ी-बंगला नहीं खरीद सकते, इसलिए,ट्यूशन पढाना जरुरी है।
स्कूलों में जो वेतन मिलता है वह तो केवल रजिस्टर में उपस्तिथि दर्ज करने के लिए होता है पढ़ने के लिए तो गाइडें खरीदो, या ट्यूशन पढ़ने के लिए आओ।

Friday, September 4, 2009

बराक ओबामा गर्दिश में ?

पिछले दिनों समाचार पढ़ा कि दुनिया के सबसे ताक़तवर
व्यक्ति अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा को बिना हेलमेट के
साईकल चलाने के लिए विशेषज्ञों – अधिकारियों की
नाराजगी झेलनी पड़ी , कि राष्ट्रपति ने आम जनता के
सामने अच्छी मिशाल पेश नहीं की।
ओबामा से ज्यादा शक्तिशाली तो हमारे यहाँ के छुटभैये
नेता होते हैं बड़े नेताओं-मंत्रियों और अधिकारीयों की
बात तो बहुत बड़ी है । कोई अधिकारी-कर्मचारी पहले तो
हिम्मत नहीं करेगा , अगर थोडी सी भी नाराजगी दिखाई तो
उसकी जान के लाले पड़ जाते हैं ।
तो, ओबामा जी ! छोडो अमरीका, यहाँ आ जाओ ।
यहाँ तो बड़े बनते ही कानून तोड़ने का अधिकार मिल जाता है यहाँ तक कि बीबी-बच्चों तक को कोई कुछ नहीं कह सकता ।

ब्लोगरों के लिए भी टेंशन

ब्लोगरो सावधान , अब इस राह में भी कांटे हैं ।
मतलब , मैं चाहे ये लिखूं, मैं चाहे वो लिखूं……….., मेरी मर्जी ।


नहीं चलेगा, क्योंकि मर्जी गधे की मानी जाती है।
ये फोटो (समाचार) बता रहा है कि धीरे-धीरे ब्लोगरों को

सोच-समझ कर लिखने के लिए ढाला जा रहा है ।

अभी अमरीका में हुआ है ,संक्रमण वहीं से चारों और फैलता है।

इसलिए ,सावधान ।

Thursday, September 3, 2009

काश मैं भी जेल गया होता

उत्तराखंड आन्दोलन में जो लोग जेल गए थे, उन्हें ही केवल आन्दोलनकारी माना जा रहा है। या, जो पुलिस की पिटाई से घायल ,अस्पतालों में भरती हुए थे ,
उन्हें माना जा रहा है। उसके लिए भी उन्हें सम्बंधित रिकॉर्ड दिखाना होगा , अगर उसके पास नहीं हुआ तो ? तो वो भी बेकार , जाने कितने आन्दोलनकारी (जो वास्तविक थे )जिन्होंने इस बात के लिए आन्दोलन नहीं किया था कि उत्तराखंड मिलने के बाद उन्हें कोई नौकरी मिलेगी या पेंशन मिलेगी , वह पेंशन पाने से वंचित रह गए । दूसरी तरफ़ , ऐसे आरोप भी लग रहे हैं कि राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने लोगों को आन्दोलनकारी चिन्हित करने के लिए ऐसे नियम बनाये हैं ।
दरअसल १९८९ में ,मैं भी उत्तराखंड क्रांति दल के साथ दिल्ली में श्री जीवन शर्मा(जो बाद में सांसद बने ) के नेतृत्व में इस आन्दोलन में जुड़ गया था १९८९ में हम लोग बोट क्लब पर सात दिन तक भूख हड़ताल पर बैठे थे । उसके बाद तो इसी आन्दोलन के कारण मैंने अपना मन दिल्ली छोड़ कर उत्तराखंड में ही रहने का बनाया और ९४ के आन्दोलन के बाद दुकान खोल ली , लेकिन जेल नहीं गया । अपनी चपलता-चालाकियों से पुलिस की पकड़ से बचता रहा अगर ये पता होता कि बाद में लाभ मिलेगा तो मैं भी जेल चला गया होता । मेरे जैसे बहुत से लोग होंगे ,हम ये नही चाहते कि हमें पेंशन मिले लेकिन ये पहचान तो मिले कि हमने उत्तराखंड आन्दोलन में सक्रियता से भाग लिया था ।


देखाजाए तो उत्तराखंड आन्दोलन राजनीतिक रूप से तो सन १९७९ में अस्तित्व में आया पर इसके लिए बहुत पहले से आवाज उठती रही थी, ऐसा मैंने पढ़ा-सुना था , लेकिन सरकार ने सन १९९४ के आन्दोलन को ही केवल मान्यता दी है , ऐसा करना न केवल आन्दोलनकारियों का अपमान है ,बल्कि ,वास्तव में इन राष्ट्रीय पार्टियों पर लगे आरोपों को भी सच ठहरता है कि ये अपने हित में आन्दोलनकारियों का अपमान कर रहीं हैं । पर क्योंकि इन्हें अपने पैसे व नेटवर्क के बल पर, फ़िर सरकारी सहायता राशियों कि रेवड़ी सी बाँट कर ये चुनाव जीत जाती हैं , तो इन्हें लगता है कि ये सही हैं लेकिन ,आम जनता को पता है कि यही राष्ट्रीय पार्टियाँ कभी उत्तराखंड कि विरोधी थीं । इनके कोई नेता घोषणा करते थे कि "मेरी लाश पर बनेगा उत्तराखंड" और कोई "उत्तरांचल के नाम पर मुरादाबाद तक के क्षेत्र को अलग करने की बात करते थे । मतलब , जो कभी विरोधी थे ,वही आज सिरमौर बने बैठे हैं । इसमें उत्तराखंड की आम जनता के साथ-साथ वो राजनीतिक पार्टियों के नेता भी दोषी हैं जो उत्तराखंड के लिए लड़ रहे थे , वे जनता में अपना भरोषा नहीं पैदा कर पाए ,अपनी नेतागिरी के चक्कर में अपनी ही पार्टी को तोड़ते रहे ; अपने ही नेताओं को अपमानित करते रहे जनता में अपना भरोसा कम करते रहे। और राष्ट्रीय पार्टियाँ अपनी मनमानी करती रहीं। इन राष्ट्रीय पार्टियों को ऐसा लगता है कि जनता व इनके कार्यकर्त्ता इनके साथ हैं लेकिन ऐसा नहीं है इनके हारते ही जिस तरह की भगदड़ इनके समर्थकों में होने लगती है वह देखने लायक होती है और वो भी आम जनता में अपनी इज्जत खोते चले जा रहे हैं ।

पेंशन की टेंशन पर मेरा पोस्टर

जिस तरह से आज पेंशनों कि बन्दर बाँट हो रही है उसे देख कर तो ये लग रहा है कि सरकारें केवल अपने कार्यकर्ताओं को लाभ दिलाने के लिए बदलती हैं , जो जितना बड़ा पैसे वाला कार्यकर्त्ता या नेता उसे उतनी ज्यादा पेंशन या सहायता राशिः छोटे-मोटे गरीब आदमी या कार्यकर्त्ता को थोड़ा बहुत राशिः पहाड़ के लोगों को नाकारा और निकम्मा बना रही है कहाँ गया इन पहाड़ वासियों का स्वाभिमान जो छोटी-छोटी पेंशनों के लिए लालायित हो रहे हैं
वैसे पहाड़ का आदमी भीख मांगता हुआ कम ही दीखता है लेकिन सरकारी भीख के लिए भीड़ देखनी हो तो इन पेंशनों के कैम्पों में देख लो। अच्छे खाते-पीते लोग भी लाईन में लगे होते हैं । सरकार हराम के खाने की प्रवृति को बढ़ावा दे रही है ,ऐसा यहीं नहीं सभी प्रदेशो में हो रहा है ।