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Thursday, September 3, 2009

काश मैं भी जेल गया होता

उत्तराखंड आन्दोलन में जो लोग जेल गए थे, उन्हें ही केवल आन्दोलनकारी माना जा रहा है। या, जो पुलिस की पिटाई से घायल ,अस्पतालों में भरती हुए थे ,
उन्हें माना जा रहा है। उसके लिए भी उन्हें सम्बंधित रिकॉर्ड दिखाना होगा , अगर उसके पास नहीं हुआ तो ? तो वो भी बेकार , जाने कितने आन्दोलनकारी (जो वास्तविक थे )जिन्होंने इस बात के लिए आन्दोलन नहीं किया था कि उत्तराखंड मिलने के बाद उन्हें कोई नौकरी मिलेगी या पेंशन मिलेगी , वह पेंशन पाने से वंचित रह गए । दूसरी तरफ़ , ऐसे आरोप भी लग रहे हैं कि राष्ट्रीय पार्टियों ने अपने लोगों को आन्दोलनकारी चिन्हित करने के लिए ऐसे नियम बनाये हैं ।
दरअसल १९८९ में ,मैं भी उत्तराखंड क्रांति दल के साथ दिल्ली में श्री जीवन शर्मा(जो बाद में सांसद बने ) के नेतृत्व में इस आन्दोलन में जुड़ गया था १९८९ में हम लोग बोट क्लब पर सात दिन तक भूख हड़ताल पर बैठे थे । उसके बाद तो इसी आन्दोलन के कारण मैंने अपना मन दिल्ली छोड़ कर उत्तराखंड में ही रहने का बनाया और ९४ के आन्दोलन के बाद दुकान खोल ली , लेकिन जेल नहीं गया । अपनी चपलता-चालाकियों से पुलिस की पकड़ से बचता रहा अगर ये पता होता कि बाद में लाभ मिलेगा तो मैं भी जेल चला गया होता । मेरे जैसे बहुत से लोग होंगे ,हम ये नही चाहते कि हमें पेंशन मिले लेकिन ये पहचान तो मिले कि हमने उत्तराखंड आन्दोलन में सक्रियता से भाग लिया था ।


देखाजाए तो उत्तराखंड आन्दोलन राजनीतिक रूप से तो सन १९७९ में अस्तित्व में आया पर इसके लिए बहुत पहले से आवाज उठती रही थी, ऐसा मैंने पढ़ा-सुना था , लेकिन सरकार ने सन १९९४ के आन्दोलन को ही केवल मान्यता दी है , ऐसा करना न केवल आन्दोलनकारियों का अपमान है ,बल्कि ,वास्तव में इन राष्ट्रीय पार्टियों पर लगे आरोपों को भी सच ठहरता है कि ये अपने हित में आन्दोलनकारियों का अपमान कर रहीं हैं । पर क्योंकि इन्हें अपने पैसे व नेटवर्क के बल पर, फ़िर सरकारी सहायता राशियों कि रेवड़ी सी बाँट कर ये चुनाव जीत जाती हैं , तो इन्हें लगता है कि ये सही हैं लेकिन ,आम जनता को पता है कि यही राष्ट्रीय पार्टियाँ कभी उत्तराखंड कि विरोधी थीं । इनके कोई नेता घोषणा करते थे कि "मेरी लाश पर बनेगा उत्तराखंड" और कोई "उत्तरांचल के नाम पर मुरादाबाद तक के क्षेत्र को अलग करने की बात करते थे । मतलब , जो कभी विरोधी थे ,वही आज सिरमौर बने बैठे हैं । इसमें उत्तराखंड की आम जनता के साथ-साथ वो राजनीतिक पार्टियों के नेता भी दोषी हैं जो उत्तराखंड के लिए लड़ रहे थे , वे जनता में अपना भरोषा नहीं पैदा कर पाए ,अपनी नेतागिरी के चक्कर में अपनी ही पार्टी को तोड़ते रहे ; अपने ही नेताओं को अपमानित करते रहे जनता में अपना भरोसा कम करते रहे। और राष्ट्रीय पार्टियाँ अपनी मनमानी करती रहीं। इन राष्ट्रीय पार्टियों को ऐसा लगता है कि जनता व इनके कार्यकर्त्ता इनके साथ हैं लेकिन ऐसा नहीं है इनके हारते ही जिस तरह की भगदड़ इनके समर्थकों में होने लगती है वह देखने लायक होती है और वो भी आम जनता में अपनी इज्जत खोते चले जा रहे हैं ।

पेंशन की टेंशन पर मेरा पोस्टर

जिस तरह से आज पेंशनों कि बन्दर बाँट हो रही है उसे देख कर तो ये लग रहा है कि सरकारें केवल अपने कार्यकर्ताओं को लाभ दिलाने के लिए बदलती हैं , जो जितना बड़ा पैसे वाला कार्यकर्त्ता या नेता उसे उतनी ज्यादा पेंशन या सहायता राशिः छोटे-मोटे गरीब आदमी या कार्यकर्त्ता को थोड़ा बहुत राशिः पहाड़ के लोगों को नाकारा और निकम्मा बना रही है कहाँ गया इन पहाड़ वासियों का स्वाभिमान जो छोटी-छोटी पेंशनों के लिए लालायित हो रहे हैं
वैसे पहाड़ का आदमी भीख मांगता हुआ कम ही दीखता है लेकिन सरकारी भीख के लिए भीड़ देखनी हो तो इन पेंशनों के कैम्पों में देख लो। अच्छे खाते-पीते लोग भी लाईन में लगे होते हैं । सरकार हराम के खाने की प्रवृति को बढ़ावा दे रही है ,ऐसा यहीं नहीं सभी प्रदेशो में हो रहा है ।

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