
‘चलो ! मान लेते हैं कि यहाँ तक तो ठीक है’। लेकिन; ‘यहाँ से आगे गलत शुरू हो जाता है, जब हमारे ये (अति साधारण बुद्धि लोगों के) आदर्श, अपने प्रशंसकों व देश के अन्य लोगों को विज्ञापनों द्वारा प्रेरित (ठगते हैं) करते हैं कि “ठन्डे का मतलब केवल कोला ही होता है,कि प्यास बुझेगी तो केवल….,कि च्यवन प्रास तो केवल यही है जो बूढ़े को जवान बना सकता है, कि सर में लगाने वाले तेल….,या गोरा होना है तो ये क्रीम” , इसी तरह से किसी के "ब्रांड अम्बेसडर" बनकर कर करना, वास्तव में किसी आदर्श व्यक्ति को शोभा नहीं देता; बेशक ! “धन अवश्य देता है”।
क्या “ये” उसका अपने प्रशंसकों के साथ छल नहीं है, इन उत्पादों को प्रचारित करने में कम्पनियां जितना धन अपने प्रचारकों को देती हैं; अगर ये उतने का सामान अपने उत्पादों में डाल दें तो इनके उत्पादों को खरीदने के लिए इन आदर्शों को प्रेरणा देने की जरुरत न पड़े। ये अगर सच में दो सप्ताह में गोरा बना दें, किसी बूढ़े को जवान बना दें, या बिना पानी पीये प्यास बुझा दें, या कपड़े, जूते, घडी, मकान या जरुरत का अन्य सामान अगर लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरे तो शायद “इन आदर्शों” की जरुरत न पड़े। और इनमें से बहुत सी वस्तुएं हानि पहुँचाने वाली हैं । स्वास्थ्य को; समाज को चाहे हानि पंहुचे पर इन्हें कोई मतलब नहीं, कमाई होनी चाहिए और कुछ नहीं ।
तो ये कहीं “इन आदर्शों” और इन कम्पनियों, ‘जिनमें स्वदेशी-विदेशी दोनों हैं, सरकारें हैं’ का आपसी गठजोड़ तो नहीं ? इस बात का संदेह तो होता ही है । “ ये मिलीभगत अघोषित है”; तुम हमारा लाभ देखो हम तुम्हारा लाभ देखेंगे, गुणगान करेंगे , बस; मुहं मांगे पैसे दे देना। 'आखिर मंद बुद्धि प्रशंसक तैयार किसलिए करे हैं ! उनके बहाव में देश के और लोग भी बहेंगे'। ऐसी सोच लगती है इन आदर्शों की।
और हमारे अति साधारण बुद्धि के प्रशंसक (फैन्स) फिर भी अपने-अपने आदर्शों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की बात करते हैं। इसके लिए मुहिम चलाते हैं कि इन आदर्शों ने देश का नाम ऊँचा किया है; पर ये नहीं देखते कि इन्होंने नाम ऊँचा करने के प्रतिकार स्वरूप देश की पीठ में छुरा घोंपा है; और घोंप रहे हैं।
जनता बेवकूफ है, आइकॉन ओवर स्मार्ट है !
ReplyDeleteइशारा तो जनता की बेवकूफी की तरफ ही है। लेकिन अब जनता भी बेचारी क्या करे। जिन आदर्श लोगों की हम बात कर रहे हैं वे भी इसी समाज से निकले हैं। आज की तारीख में चाहे वो कोई हस्ती हो या फिर आम आदमी सभी को पैसा कमाने का धुन सवार हो गया है। ऐसे में सिर्फ आदर्श लोगों को ही दोष देना ठीक नहीं है।
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