(बस एक बात का ध्यान रखना कि सुबह उठकर कहीं प्राणयाम-ध्यान-योग आदि ना करने लग जाना, किसी बाबा-वाबा की बातों में आकर । वह मरने की कला के विरोधी हैं। लोगों को शीघ्र मरना सीखना चाहिए वह जीना सिखाने की जिद पाले हुए हैं । )
हमारे कितने ही ऋषि- महर्षि,संत -महात्माओं ने सांसारिक लोगों को “जीने की कला” के विषय में बताया है। पर लोग हैं कि उसकी हंसी ही उड़ाते देखे जाते हैं। विशेषकर जब से लोगों ने स्वयं को शिक्षित समझना शुरू कर दिया।
दरअसल दुनिया वालों को लगता है कि हम भारतीयों को ना जीना आता है ना मरना। इसमें उनका दोष नहीं, जिन बातों को हमारे पूर्वज जीवन के दोष बता गए; भारत से बाहर वालों को वही दोष जीवन जीने की कला समझ आये। और जब से भारतीयों को उन विदेशियों ने पट्टी पढ़ाई(मैकाले ने शिक्षा दी ) ये भी उन्हीं की नक़ल करके मरने की कला में पारंगत होने लगे हैं।
वर्ना ; हमारे यहाँ तो बीमारी से मरना या कर्जदार मरना पाप समझा जाता था । यहाँ तक कि मरते समय अकेले होने की गाली दी जाती थी कि; “तुझे पानी भी ना मिले” या “कोई रोने वाला भी ना हो”। पर विदेशों में यही सबसे ज्यादा होता है। विदेशों में क्या; अब तो यहाँ भी ऐसा ही होने लगा है। किसी को बुरा नहीं लगता , कई लोग इसके उदहारण हैं जो अपने जीवन को अकेले काटते हुए अंतिम दिनों में चुपचाप मर गए। उनका कई दिन बाद पता लगा। कोई पीछे रोने वाला हुआ भी तो रोने को किसका मन करे। मरने वाले के कर्म ही ऐसे थे।
ये पता नहीं कलियुग का प्रभाव है या मनुष्य प्रकृति, कि उसे जिस बात के लिए मना करो वह उसे ही ज्यादा करने का प्रयास करता है। ऐसा ही आदम-हौआ ने किया होगा।
तो साहब ! हमने सोचा कि; क्यों ना लोगों को “जीने के बदले-मरने की कला” के विषय में बताया जाये । इस कला को जानते तो सभी हैं पर नाना प्रकार की होने के कारण छितरी हुयी है। अगर इसको संगठित रूप देकर और ग्रन्थ बना कर पेटेंट करा लिया जाये तो कुछ कमाई का जरिया भी बने।
आप भी कहोगे कि मरने की कला की बात करके इसने किन बातों में उलझा दिया। इसलिए अब आपको बता ही दूँ कि मरने की कला में छोटी-छोटी बातों को समझ कर उनके परिणामों को समझना आपकी समझदानी (बुद्धिमानी) पर निर्भर करता है । इसलिए कम लिखा भी अधिक समझना। सुबह जितना देर से जागोगे उतना ही म्रत्यु के नजदीक शीघ्र पहुंचोगे, इसमें रात को देर से सोना, मांस-मदिरा-सिगरेट और गुटका-तम्बाकू का योग (कम्बीनेशन) जल्दी मरने में लाभ पहुँचाता है। मरने की कला यही है कि जीवन में दुनिया के सारे कुकर्मों का उपभोग करके शीघ्र मरा जाये। सौ साल तक वृद्ध होने का इंतजार क्यों करना ? इस दुनिया से जल्दी जाने में लाभ है। कमसेकम दूसरे जन्म के लिए पहले नंबर आयेगा ।
पहले की बात और थी, इतनी उपभोग की वस्तुएं नहीं थी, विज्ञापन नहीं थे। आज इतना सबकुछ होने के बाद भी हम उनका उपयोग और उपभोग ना कर पायें तो ये हमारी बुद्धिमानी नहीं ।
स्वस्थ,सुखी, संपन्न रह कर मरना भी कोई मरना है भला । सरकारों का, कम्पनियों का, चिकित्सकों का, काम कैसे चलेगा ?
भई जब कुछ कम-धमा रहे हो तो खर्च भी करो, किस पर खर्च करो ! विज्ञापन और फ़िल्में देखो। किस किस तरीके से शराब पी जाती है और बुरे काम किये जाते हैं देख कर उनसे कुछ सीखो, तब शराब कम्पनियां भी चलेंगी जिनसे सरकार चलती है। वैसे भी जो कुछ आज खाने को उपलब्ध है वह कौन सा शुद्ध है। मतलब ये है कि शीघ्रातिशीघ्र बीमार पड़के मरना ही मरने की कला है। अंत में चिकित्सक के पास अपना सब जमा धन खर्च करके बल्कि कर्ज लेकर भी अपने आश्रितों को अपने मरने पर ना रोने के लिए तैयार कर जाओ । यही मरने की कला है ।
इस कला को सीखने में हमारा भारतीय दर्शन कि; रोते हुए आते हैं हँसते हुए जाना है एकदम गलत है । जिसने भी मरने की कला सीखनी है वो ये बात गांठ बांध ले कि बिना कई सारी बिमारियों के,वृद्धावस्था से पहले,मरना कोई मरना नहीं है ।
मरने से पहले बहुत सी बीमारियाँ होनी चाहिए मोटापा, रक्तचाप, मधुमेह तो आज के समय में सामान्य हो गयीं है। साधारण जन को हो जा रहीं हैं अब तो जमाना है कैंसर, एड्स इत्यादि का।
बस एक बात का ध्यान रखना कि सुबह उठकर कहीं प्राणयाम-ध्यान-योग आदि ना करने लग जाना, किसी बाबा-वाबा की बातों में आकर । वह मरने की कला के विरोधी हैं। लोगों को शीघ्र मरना सीखना चाहिए वह जीना सिखाने की जिद पाले हुए हैं । सोचो जब सारे ही स्वस्थ-सुखी हो जायेंगे तो कैसे ये दुनिया ( शराब,सिगरेट-तम्बाकू, दवा,कीटनाशकऔर चिकित्सकों की दुनिया ) चलेगी ?
अभी ट्राइ करता हूं :)
ReplyDeleteविचारणीय लेख, फुलारा सहाब
सुबह व्यायाम -शाम को मदिरा -रात को सम्भोग ,
ReplyDeleteचिंता मत कर बच्चा -निश्चित है मृत्यु - योग ,,