"पहाड़ों पर वर्षा"
इस समय “चौमासा” चल रहा है, और सच पूछो तो जहाँ में रहता हूँ (उत्तराखंड के पहाड़ों पर) वहां तो लगभग पंद्रह वर्षों बाद चातुर्मास में चौमासे जैसा नजारा है। हालाँकि किसान मिर्च, मडुवा इत्यादि फसलें नहीं सूख पाने के कारण परेशान हैं पर आम आदमी अच्छी वर्षा को देख कर प्रसन्न भी हैं। आज कल तो रात में वर्षा और दिन में कुछ देर के लिए घाम आने से चेहरे भी खिल से जाते हैं, उस समय कुछ ऊमस का अनुभव भी होता है । पहाड़ों की धारों(चोटियों और उनसे नीचे) पर बादलों के टुकड़े इस बात का अहसास भी कराते हैं कि हम आम दुनिया वालों से ऊपर रहते हैं। प्रकृति के इस नज़ारे को देख कर मन प्रफुल्लित हो जाता है;कि हम दुनिया वालों से ऊपर आकाश (स्वर्ग ) की ऊँचाईयों पर रहते हैं। इसी के साथ मन में एक भय भी पैदा हो जाता है; कहीं कोई आपदा ना हो जाये।
आपदाएं !
सच में ! बड़ा दुःख होता है जब कहीं प्राक्रतिक या मानवीय आपदा होती है। प्राक्रतिक आपदाएं वैसे तो कभी भी हो सकती हैं पर वर्षा ऋतु में ये ज्यादा ही होती हैं। पहले तो इनका डर केवल पहाड़ों में ही अधिक होता था ; पर जब से मुम्बई जैसे शहरों में अचानक बादल फटने की घटनाएँ हुयीं लगा प्रकृति ही सर्वोपरि है उसके आगे सब कुछ केवल तिनके के सामान है। पहाड़ों में तो लगभग साल में दो-चार ,दो-चार आपदाएं होती रहती हैं कभी प्राक्रतिक तो कभी मानवीय। वाहनों के चालकों द्वारा नशा करके वाहन चलाना इसमें मुख्य है। प्रकृति पर तो मान लो किसी का वश नहीं; पर मानवीय आपदाओं को तो रोक सकते हैं। पर यह बिना नशे को बंद किये नहीं हो सकता ।
भ्रष्टाचार भी कारण है ।
वैसे तो जिन्हें हम प्राकृतिक आपदाएं मानते हैं वह भी, देखा जाये तो प्रकृति के साथ अति मानवीय हस्तक्षेप से ही हो रहीं हैं। चाहे सुमगढ़ स्कूल में बच्चों के साथ का हादसा हो या लेह में हुआ हादसा हो या कुछ साल पहले मालपा में मानसरोवर के यात्रियों के साथ हुआ हादसा हो या आमतौर पर होने वाले वाहनों के हादसे हों या मुम्बई और अन्य बड़े शहरों के प्राकृतिक हादसे हों , इन सबमे भ्रष्टाचार भी एक मुख्य कारण है। इनमे एन जी ओ भी मुख्य हैं ।
भ्रष्ट एन जी ओ
जितने एन जी ओ भारत में हैं; पर्यावरण और प्रकृति के लिए काम करने वाले, उनमे से निन्यानबे प्रतिशत भ्रष्ट और फर्जी हैं। उनमे से अधिकांश बड़े-बड़े अधिकारियों की पत्नियों के नाम पर हैं। सरकारी भ्रष्टाचार अलग है। जितना धन सरकार हर वर्ष पर्यावरण के संरक्षण के लिए इन संस्थाओं को देती है, वो धन शायद पर्यावरण को हानि ही अधिक पंहुचता है। क्योंकि उस धन का उपयोग ऐसे ही स्थानों पर होता है। किट्टी पार्टियां, पांच सितारा पार्टियां,लाखों की कारों को अपने बच्चों को देने का शौक, यही धन क्रिकेट जैसे महंगे खेलों को देखने के काम भी आता है यही धन मकानों की खरीद-फरोख्त के काम भी आता है। और जिस कार्य के लिए यह धन मिलता है वह केवल कागजों और फाईलों में हो जाता है। और प्रकृति का प्रकोप आम आदमी और बच्चों पर कहर बन कर टूटता है। जबकि प्रकृति अपने को स्वयं सुधार लेती है ।
स्वयं निर्मित जंगल
हमारे नजदीक में कुछ साल पहले नदी अपने साथ लाये शीशम के बीजों को अपने किनारे पर छोड़ गयी जो कुछ वर्षों में एक अच्छा-खासा जंगल बन गया। जो बहुत चर्चा में रहता है पूरे पहाड़ में एक भी ऐसा वृक्षारोपण किसी पर्यावरण के लिए समर्पित संस्था द्वारा नहीं हो पाया। इसीलिए मैंने पहले भी लिखा था की पर्यावरण या प्रकृति को कोई नुकसान नहीं हो रहा वह अपने को सुधारने में सक्षम है; नुकसान होगा तो मनुष्यों का होगा, उसके सुधार में।
लूट फिर भी जारी है
और भ्रष्टाचार अब तो खुल्लम खुल्ला हो रहा है जब देश का सांसद छाती ठोक कर अपना वेतन बढवा रहा है इनकी नैतिकता तो आखिर मान लो मर गयी, पर क्या हमारे देश के लोग;जो इन्हें वोट देंगे ये उनकी तरफ से किस लिए निश्चिंत हो गए। या इन्हें ये आत्मविश्वास कैसे है ? कि सभी वोटर गंवारों की तरह पप्पू बन जायेंगे ।
इन सब NGO को मिले धन का हिसाब लिया जाना चाहिए ,संचालन और संस्था को चलाने का खर्च ज्यादा से ज्यादा २० से ३० प्रतिसत होता है ,बांकी के पैसों का पूरा जमीनी खर्च को जांचा जाना चाहिए और धोखेबाजों को सख्त से सख्त सजा दिया जाना चाहिए ,ऐसे NGO इंसानियत के दुश्मन हैं और अच्छे कार्य करने वालों को भी शर्मसार करते हैं ...
ReplyDeleteआप दोनों की ही बातों से सहमत हूँ
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