महँगाई के विरोध में तो बहुत आन्दोलन हो रहे हैं पर समर्थन में एक यही आन्दोलन देखा ।
बड़ा अचरज हुआ कि छाती ठोक कर महंगाई को सही ठहराने वाले ये कौन हैं ! इसलिए देखने सुनने चला गया । तो देखा सरकारी दल (सत्ताधारी दल )के स्थानीय लोग हैं, कुछ छुटभइये नेता हैं जो एक - एक कर अपनी बात कहने के लिए आ रहे हैं ।
‘साथियो आपको सरकार के महँगाई बढ़ाने के निर्णय को जायज समझना चहिये। आखिर देश के सभी नागरिकों और कम्पनियों का ध्यान सरकार को रखना पड़ता है । वर्तमान में जो महँगाई सरकार ने बढ़ाई है वह उसकी मज़बूरी है। तेल की जो बड़ी-बड़ी कम्पनियां हैं वह लगातार घाटे में जा रहीं थी ( क्योंकि उनके अधिकारीयों - कर्मचारियों के पांच सितारा खर्चे पूरे नहीं पड़ रहे थे ) जिससे [ आगे पढ़ें ]...... उन्हें बचाना जरुरी है। अगर वह लगातार घाटे में जाते हुए डूब जाती तो सरकार की कितनी बदनामी होती। और उन कम्पनियों के डूबने पर कितने लोगों की (पांच सितारा) अय्याशियाँ बंद हो जाती । फिर यही कम्पनियां और अधिकारी तो चुनाव के वक्त हमारे नेताओं के काम आती हैं। हमारा ( कार्यकर्ताओं का) खर्चा कैसे चलता है' ?
अब दूसरा आया......................
'.......“जिन” गरीबों के लिए सब रो रहे हैं “वो” हमें क्या देते हैं, उल्टे चुनाव के वक्त जिसे जो चाहिए; "दारू से लेकर साड़ी-धोती" तक सब इन्हें देना पड़ता है । एक लाख में लड़ने वाले चुनाव को ये करोड़ों का बना देते हैं ।
और ये “विपक्षी दल”, किस मुहं से विरोध कर रहे हैं; क्या ये चुनाव का खर्च अपने घर के पैसे से करते हैं ? जैसे इनके पिताजी जमा पूंजी रख कर गए हों,अगर रख कर गए भी हैं तो इन्हीं कम्पनियों की बदौलत या कुछ धन्नासेठों की बदौलत रख गए हैं । अब उनका ख्याल तो सरकार को रखना ही पड़ता है । जब “ये” सत्ता में होते हैं तब ये रखते हैं' ।
अब एक और आया ..............
'......अब रहा गरीबों के लिए चिल्लाने का नाटक, तो भाईयो गरीब का क्या है; जो एक कटोरी सब्जी खाता है वह आधी कटोरी से काम चला लेगा, दाल नहीं भी खायेगा तो आसमान तो नहीं गिर जायेगा, अरे भई उसको नमक से रोटी खाने की तो आदत है ही ;सच में हम तो शौक में कभी-कभी नमक या चटनी से रोटी खाते हैं तो बहुत अच्छी लगती है। गरीब को तो रोटी खानी ही चटनी या नमक से चाहिए। क्या पता देश के हालात कब बिगड़ जाएँ तब इन्हें ही तो लड़ना है और उस लडाई में क्या हो किसे पता। अब वो दिन थोड़े ही हैं जब महाराणा प्रताप ने जंगलों में घास की रोटी खायी थी । अब के महाराणा तो अपने स्विश बैंकों के खजाने का इस्तेमाल करने चल देंगे । इसलिए भाइयो – बहनो ये तो गरीबों के लिए अच्छी बात है कि वे अमीरों की तरह अय्यासियों में न पड़ें। कम खाएं - गम खाएं तो स्वस्थ रहेंगे। अमीरों की तरह मुहं टेढ़ा (केंसर ) या बदबूदार अजीबोगरीब बिमारियों से नहीं सड़ेंगे। सच पूछो पांच सितारा अस्पतालों में सड़ने में कोई मजा थोड़े ही है'।
'बाकी गरीब व साधारण आदमी ने मरना वैसे भी है ही, कौन बचा आज तक; बचते तो केवल अमीर हैं चाहे सड़ते रहें उन्हें बचाए रहते हैं। गरीब तो समृद्ध होएंगे तो भी दुर्घटनाओं या बीमारी से जब हस्पताल में पहुंचेंगे तो भी डाक्टरों-कर्मचारियों ने मारना है' ।
अब एक और आया कुछ दादा जैसा दिखने वाला......
'......सरकार को आखिर सरकार चलानी होती है। अपने नेताओं का पेट भरना,दवा के साथ दारू का भी इंतजाम करना पड़ता है। केवल नेताओं का ही नहीं उनके बच्चों तक का ख्याल सरकार को रखना पड़ता है। फिर पार्टी कार्यकर्ताओं के पेट का सवाल भी है। नौकरी और कामधंधों से पूरा नहीं पड़ता। हम पर भी तो महँगाई का असर होता है '।
'अब विपक्षी अपना फर्ज निभा रहे हैं तो हमारा फर्ज बनता है कि हम सरकार का साथ दें। इसलिए सब नारा लगायेंगे .. हमारी सरकार की मज़बूरी है महँगाई बढ़ाना जरुरी है' ।
कार्यक्रम अभी चालू ही है पर मैं चिंतन करता हुआ चला आया ; कि बातें तो इनकी भी सोचने के लिए दिमाग में खुजली करती हैं।
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