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Friday, November 25, 2011

जो देश भक्ति की बात करे उसे उपहास की नज़रों से देखा जाता है या उसे पागल ठहरा दिया जाता है

चलो कोई तो आम आदमी निकला, वर्ना कोई इस दल का कोई उस दल का जो किसी दल का नहीं वो दीखता ही नहीं लेकिन इस झापड़ से उसने अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश की है | "इसे" भ्रष्ट हो चुके लोकतंत्र पर, विदेशी कम्पनियों के हाथों बिक चुके मंत्रियों पर, आम आदमी को लूट रही व्यवस्था पर, आम आदमी के तमाचे के रूप में देखना चाहिए |
इस बात को वैसे तो सही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन इस के लिए माहौल भी इन्हीं मंत्रियों की कारगुजारियों से बना है ये वही मंत्री हैं जो अपने बयानों से कभी महंगाई बढ़ाने के लिए जिम्मेदार माने जाते थे, जमाखोरों को इशारा सा करने वाले बयान या टिपण्णी देश भूला नहीं होगा |
दूसरा आप आम आदमी से तो संयम बरतने की अपील और इच्छा करते हो पर स्वयं उन्हें पुलिस के डंडों से बेरहमी से पिटवाते हो जब वो भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े हों तब, जब वो अपने अधिकार के लिए खड़े हों तब, कैसे महिलाओं और बच्चों तक को पुलिस बेरहमी से पीटती है इसे समाचार चैनलों के माध्यम से कई बार हमने देखा है पर किसी मंत्री को पुलिस के द्वारा इस तरह पीटने को लेकर कभी भी लोकतंत्री चिंता व्यक्त करते या इस "डंडे" (अंग्रेजों ने थमाया था) वाली पुलिस के विरुद्ध कुछ करने की बात कहते नहीं सुना | पुलिसिया गोलीबारी में भी कई मारे जाते हैं; क्यों लोकतंत्र तभी याद आता है जब मंत्रियो पर जूते-चप्पल या थप्पड़ पड़ते हैं | क्यों नहीं तब लोकतंत्र याद आ रहा है जब खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को लेकर संसद और खुद सरकार के मंत्री एक नहीं है |
ये पूरा माहौल सरकार स्वयं बना रही है पिछले पैसठ वर्षों से इन्होने व्यवस्थाओं के नाम पर आम आदमी को केवल झंडा पकड़ा दिया है वो भी अपनी अपनी पार्टियों का | आम आदमी को देशभक्त रहने ही कहाँ दिया वो देशभक्त नहीं पार्टी भक्त हो गया है | जो देश भक्ति की बात करे उसे उपहास की नज़रों से देखा जाता है या उसे पागल ठहरा दिया जाता है वही कुछ इस कांड में हो रहा है केवल ऊपर से इस कृत्य को अलोकतांत्रिक ठहरा दिया जाना केवल इसके सही या गलत पर बहस करना वैसा ही है जैसे कांटा चुभने पर केवल कांटा निकाल फैंकना ये नहीं देखना कि कांटा चुभा क्यों |

2 comments:

  1. बिलकुल सही
    जब पूरे दिन भूखे रहकर आधी रात में मैंने तीन लाठियां खाएँ तो किसी को लोकतंत्र की याद न आई| आज केवल एक थप्पड़ बज गया तो लोकतंत्र की नानी याद आ रही है| लोकतंत्र की हत्या? लोकतंत्र की हत्या तो उसी समय हो गयी थी जब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा गया था| उसके बाद कहने को आज़ादी आ गयी किन्तु लोकतंत्र कहाँ है?

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  2. अच्छी प्रस्तुति जब कोई नेता पिटता है तभी लोकतन्त्र याद आता है और जब हजारों लोग पिट रहे है तब इनका लोकतन्त्र चला जाता है भाड में

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