हम बुरी नजर वाले हैं , अच्छाई से हमें क्या वास्ता ।
उजाले हमें क्यों भाने लगे , अंधेरों में ही अपना रास्ता ।
"सच, समझने-जानने की बुद्धि तो है, कहने-सुनने को मन नहीं करता ।
क्योंकि ;
झूठ से ही अपना और अपनों का पेट भर पाते हैं" ।
उपरोक्त पंक्तियाँ भारत में रहने वाले "कुछ अभारतीय" लोगों के लिए हैं ।
जिन्हें
भारत की सभ्यता-संस्कृति इतिहास में उजला पक्ष दीखता ही नहीं या ये देखना ही नहीं चाहते ।
सब जानते हैं कि; उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता, उसकी आँखें चोंधिया जाती हैं । उसकी प्रकृति है कितना ही उसे उजाला दिखाओ वह अपनी आँखें ही मून्देगा उजाले को देख ही नहीं पायेगा ।
लेकिन मनुष्य को तो प्रकृति ने ऐसा बनाया है कि अँधेरा-उजाला दोनों देख सकता है। पर अगर मनुष्यों में से कोई उजाले को देखने के बदले अपनी आँखें बंद कर के कहे; कि उजाला है ही नहीं, तो उसे क्या कहेंगे ! उल्लू ?
मेरी भाषा में तो उसे शालीन शब्दों में कहेंगे कि वह मनुष्य के रूप में उल्लू की योनि को भोग रहा है ।
यही कुछ, ‘हमारे कुछ बुद्धिजीवी कहलाने वाले’ ‘एक विशेष मानसिकता वाले लोग’ करते हैं । भारतीय धर्म ग्रंथों में जितनी ज्ञान-विज्ञान धर्म-आध्यात्म की बातें लिखी हुयी हैं और जिस तरह से उन्हें उद्धरणौं द्वारा समझाया गया है उसके यथार्थ को जानने समझने बावजूद ये अपनी आँखे मूंद कर उसमे से गलत ही ढूंढेंगे । इन्हें कोई अच्छाई नजर आती ही नहीं । उजाला या उजला पक्ष ये देख ही नहीं पाते । इनकी आँखें चौंधिया जाती हैं।
और इन जैसे लोगों के कारण ही हमारे ये ग्रन्थ अभी तक शोध से उपेक्षित हैं । इनके कारण ही हमारी शिक्षा और शिक्षक का इतना ह्रास हो गया है कि दोनों की नैतिकता समाप्त हो गयी है | आज गुरु और शिष्य अपनी मर्यादा भूल कर एक दूसरे के लिए विरोधी हो गए हैं |
ये केवल अधिकारों को मांगने की बात करते हैं , कर्तव्यों की बात को अपने अधिकारों का हनन मानते हैं |
इन लोगों के लिए तो बस अब यही कह सकते हैं कि ; "बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला , बहुत जल्द है होने वाला | जब अँधेरा छंटेगा होगा उजाला, तब छुपा के रखना अपना मुंह काला" |
शोभनं भावं प्रदर्शयन् लेख: ।।
ReplyDeleteअज्ञान तिमिर पर कटाक्ष
ReplyDeleteसत्य,केवल सत्य
सटीक बात कही है..
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