ताजा प्रविष्ठियां

Friday, June 25, 2010

उफ़ ! ये गर्मी और ये जींस की पेंट “वो भी चिपकी हुयी”

उफ़ ये गर्मी और ये जींस की पेंटक्या करें पहननी भी जरुरी है वरना ; बॉय या गर्ल फ्रेंड को और अन्य जानने वालों को "पर्सनेलिटी" कैसे दिखेगी
अब जींस की पेंट पहननी हो; फिर ढीली-ढाली हो तो पहनने का क्या फायदा ? भई ; वह तो चिपकी हुयी ही अच्छी लगती हैजिसमें से शारीर की हैल्थ (मांसलता) दिखे ऐसी जींस; पुरुषों को तो तब भी ठीक लगती है, महिलाओं को नहीं भातीइसलिए चिपकी     

Monday, June 21, 2010

बुरी नजर वाले.....(कुछ अभारतीय लोगों के लिए)

हम बुरी नजर वाले हैं , अच्छाई से हमें क्या वास्ता
उजाले हमें क्यों भाने लगे , अंधेरों में ही अपना रास्ता

"सच, समझने-जानने की बुद्धि तो है, कहने-सुनने को मन नहीं करता
क्योंकि ;
झूठ से ही अपना और अपनों का पेट भर पाते हैं"

उपरोक्त पंक्तियाँ भारत में रहने वाले "कुछ अभारतीय" लोगों के लिए हैं
जिन्हें

Thursday, June 17, 2010

"मरा हुआ आदमी"

आदमी ;                 
मरने के बाद ,
कुछ नहीं सोचता |
आदमी ;
मरने के बाद ,
कुछ नहीं बोलता |
कुछ नहीं सोचने
और
कुछ नहीं बोलने पर ;
आदमी
मर जाता है।
उदय प्रकाश की लिखीं
ये पंक्तियाँ मैंने उत्तराखंड की पत्रिका
रीजनल रिपोर्टर में पढीं | सोचा ब्लोगरों के
लिए भी लिख दूँ ।
तभी मेरे मित्र जोशी जी आ गए उनहोंने
चार लाईन और जोड़ दी ;
कि
जो कुछ नहीं पढता ,
जो कुछ नही लिखता |
जब लिखता नहीं ,
जब पढता नहीं ,
आदमी मर जाता है।

"क्योंकि मैं भारत हूँ"

मैं भारत हूँ,
वर्तमान में बहुत शर्मिंदा हूँ
अपराध,भ्रष्टाचार,अनैतिकता से त्रस्त,
अपने भ्रष्ट नेताओं के कारण


फिर भी ….

Tuesday, June 8, 2010

ये हमारे ही कर्म हैं, किस मामले में सजा समय पर, और पूरी मिल रही है ?

आज किसलिए रो रहे हैं हम ? "जब बोया पेड़ बबूल का हो आम कहाँ से होय"

ये न्याय व्यवस्था का वृक्ष तो अंग्रेजों ने अपने को छाया देने के लिए लगाया था जब हम आजाद हुए थे तब ये वृक्ष हमारे नेताओं ने उखाड़ कर एक नया वृक्ष लगाना चाहिए थाजिसके नजदीक जाने पर अपराधियों को डर लगता।
लेकिन
ऐसा नहीं हुआ इस न्याय व्यवस्था में तो अपराधी बचने के लिए इसकी शरण में जाते हैं और सज्जन इससे डरते हैंक्योंकि ये व्यवस्था अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा और भोली जनता को ये दिखाने लिए; किदेखो हम कितने न्यायप्रिय हैं अपने लोगों पर भी मुकदमा चलाते हैं’। क्योंकि उस समय अधिकांश अपराधिक मामले उनके अपने; या अपने पिट्ठुओं के ही होते थे, और उन्हें बचाने का; तथा जनता में विरोध हो, इसके लिए उन्हें इसी तरह के कानून की जरुरत थीजो आजादी के बाद तक चला
और अब तो लगभग हर मामले में यही अंधेर देखने को मिल रहा हैशायद हमारे तब के नेताओं को ये आभास होगा कि आने वाले समय में हमारे वर्ग के लोगों को या अपनी आने वाली पीढियों को बचाने के लिए उन्होंने ये व्यवस्था लागू रहने दी

लेकिन अभी भी चिड़िया ने पूरा खेत नहीं चुगा है, इसलिए पछताने से कोई लाभ नहीं बल्कि एक आन्दोलन की फिर से जरुरत है , जिसमे सब बदल देना होगा न्याय व्यवस्था, कानून व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, वो सारा अंग्रेजी तरीका जो हमारे यहाँ फिट नहीं बैठता

"हमें चाहिए न्याय" जिसमे हत्यारे, मिलावट खोर, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी और देशद्रोही को दो महीने के अन्दर फांसी की सजा हो जायेतब ये न्याय होगा वरना ये पीड़ित के प्रति अन्याय है

Thursday, June 3, 2010

गरीब का इंटरव्यू,भारत की सत्ता दाउद को सौंप दो, "नया मन्त्र",डाकू से वाल्मीकि

आज तक कई साक्षात्कार पढ़-देख चुका। बड़े से बड़े पत्रकार द्वारा; छोटे से छोटे पत्रकार द्वारा लिए गए। बड़े से बड़े व्यक्तित्व का इंटरव्यू। पर एक आदमी का इंटरव्यू मैंने आज तक नहीं देखा। और वो है “गरीब आदमी”। इसका कारण ? ‘हो सकता है “ये” (इंटरव्यू लेने वाले) “किसी गरीब” को आदमी ही न समझते हों’। इसीलिए आज तक उसका इंटरव्यू नहीं लिया। ये भी हो सकता है कि इन्हें गरीब आदमी का इंटरव्यू लेना सिखाया ही न गया हो.... ।

साथियो मेरे मन में भी न जाने कैसे-कैसे विचार उठते रहते हैं, कभी-कभी व्यक्त करना मेरे लिए कठिन होता है । विचार भी ऐसे होते हैं कि उन्हें समझ कर बहुत से लोग भ्रमित हो जाते हैं । जैसे ; जो कम्युनिष्ट या नास्तिक हैं वह मुझे अपने जैसा ही समझने लगते हैं। और जो कम्युनिष्ट या नास्तिक नहीं हैं वह भी मुझे “यही” समझने लगते हैं। मेरे बहुत से कम्युनिष्ट मित्र कई बार कह चुके हैं कि भई तुम्हें तो हमारी पार्टी की सदस्यता लेनी चाहिए क्योंकि तुम्हारे विचार तो कम्युनिष्टों जैसे हैं ।

पर जब मैं उन्हें बताता हूँ कि मेरे ये विचार तो "अपने धर्म" के आधार पर बने हैं, अगर ये विचार तुम्हें कम्युनिष्टों के लगते हैं, तो; क्यों नहीं तुम भी विदेशी विचार धारा छोड़ कर स्वदेश की विचारधारा को अपनाते ? बस वहीँ वह लोग बगलें झाँकने लगते हैं । कई तो बेचारे जो “नए-नए मुल्ला”(कामरेड) बने हैं; 'मुझे बदलने के चक्कर में बहस में उलझ जाते हैं और कुछ समय बाद धार्मिक बन जाते हैं' या केवल नाम के लिए कम्युनिष्टों के साथ रह जाते हैं। लेकिन "पुराने घाघ" मेरे से बहस में उलझने के बदले पिछले कई सालों से कन्नी काट कर निकल जाते हैं वह कभी बैठे भी; तो इस विषय पर चर्चा छेड़ने से कतराते हैं। वैसे तो वह चलते-चलते ही कहते जाते हैं; “तुम्हारे साथ फिर कभी बैठ कर बात करेंगे अभी तो जल्दी में हैं”।वैसे; मेरे अच्छे मित्रों में से हैं, पर काम धंधा कुछ नहीं है, कोई पूछता है ; तो अपने को "होलटाईमर " धीरे से बताते हैं कोई अर्थ न समझ पाए तो समझाने में हिचकते हैं ।

और यही हाल हमारे तथाकथित धार्मिक आत्माओं का है। वह मूर्ति पर जल चढाने को धर्म मानते हैं। पेशेवर भिखारियों को दान देना धर्म मानते हैं। मैं जब उनसे इस जड़ पूजा के बदले चेतन्य की पूजा की बात करता हूँ तो वह इसे गहरे ज्ञान की बात कह कर; या हंसी में उड़ा कर चल देते हैं कि; “यार तुम तो बाबाजी ही बनवाओगे”। जबकि मैं चालीस साल का हूँ, और बाबाजी नहीं बना।

बहुत से लोग तो मुझे समझ ही नहीं पाते इसी लिए तो अभी तक मेरे ब्लॉग को समझने वालों की संख्या गिनने लायक ही है।खैर…. अब तो स्वामी रामदेव जी ने "नया मन्त्र" दे दिया है; कि "चित्र नहीं चरित्र" की पूजा करो ।

एक कमी और भी है “मैं लिखते-लिखते विषय से भटक जाता हूँ”, जैसे इस लेख में ही देख लो । लिखना है एक "गरीब के इंटरव्यू" पर और, लिख बैठा अपनी कहानी । तो साहब मेरे मन में बहुत दिनों से एक बात घूम रही थी । सोचा सभी को बता दूँ । कि किसी गरीब आदमी का इंटरव्यू लिया जाये । तो जनाब हमने एक गरीब आदमी अपने स्तर पर ढूँढना शुरू किया । ढूँढना इसलिए पड़ा; कि ये भारत है कभी बेशक यहाँ अपने को गरीब कहना बुरा समझा जाता हो, पर आज तो हालात ये हैं कि सभी अपने गरीब कहते हैं। केवल कहते ही नहीं समझते भी हैं। अगर; पडोसी, 'दोनों मिया-बीबी नौकरी करने वाले हों' तो अड़ोसी अपने को गरीब समझता है। क्योंकि अकेला मिया ही कमाता है । इसी तरह जिसके पास एक कार है वह अपने को दो कार या बड़ी कार वाले से गरीब समझता है …..। अब मुझे वास्तविक गरीब चाहिए था इंटरव्यू के लिए । यहाँ पर मित्र का सुझाव काम आया कि जैसे सरकार ने गरीबी रेखा बना रखी है वैसे ही तुम अमीरी रेखा बना के उससे नीचे वालों को गरीब मान लो । तो साहब हमने दस हजार मासिक की आमदनी को अमीरी रेखा मान लिया तब कहीं गरीबों की छंटनी हुयी ।

लेकिन जिस गरीब को हम चाहते थे वह हमें फिर भी नहीं मिला। पर फिर हमें ध्यान आया कि सरकार ने जो सौ रुपल्ली रोज की दिहाड़ी तय कर रखी है; उससे ज्यादा गरीब और कौन होगा। हमने एक नरेगा-मंरेगा मजदूर ढूँढना शुरू किया, तो पाया; कि वह तो हमारे प्रश्नों को ही नहीं समझ पायेगा। क्या करें ? फिर हमारे मित्र ने सुझाया कि सब गरीबों को एक समझकर उनसे उनके समयानुकुल प्रश्न करो। और, जो उत्तर मिले उसे ही सब गरीबों का उत्तर समझो । ये विचार भी मुझे तो ठीक लगा ।

अब प्रश्नों की सूचि बनानी थी क्योंकि प्रश्न भी गरीबों के स्तर के होने चाहिए। उनसे फाईव स्टार होटलों, क्रिकेटरों, हीरो-हिरोईनों के सवाल तो कर नहीं सकते । हालाँकि; इन पर उनका अपना नजरिया होगा, पर फिर भी दुखी आदमी से दुःख के सम्बन्ध में ही सवाल किये जाते हैं, या सांत्वना दी जाती है। मैं समझता हूँ कि गरीब आदमी दुखी ही रहता है । तो जनाब सवालों की सूचि बनने लगी, क्योंकि सवाल तैयार होंगे तो जब जो गरीब मिलेगा उससे वह सवाल पूछ लेंगे।

दरअसल गरीबों के पास वास्तव में समय की कमी होती है। कई गरीबों को मैंने लालच भी दिया कि तुम्हारा साक्षात्कार लेकर कंप्यूटर में और पत्र-पत्रिकाओं में या टी.वी. में देंगे। पर वह अपने पास समय न होने का कारण बताकर चलते-चलते ही प्रश्नों का उत्तर दे देते हैं। इस लालच में भी नहीं आते कि टी.वी. या पत्र-पत्रिकाओं में दिखेंगे ।
पर साहब हमें सवालों की सूचि नहीं बनानी पड़ी क्योंकि पहले सवाल के बाद ही नए सवाल अपने आप बनते चले गए ।

पहला सवाल - उनकी जिंदगी कैसी चल रही है ?उत्तर- 'अजी क्या जिंदगी हमारी ! जिंदगी तो उनकी होती है जो खाने-रहने की चिंता से मुक्त होते हैं। हम तो जब दिन भर रिक्शा खींचते हैं तब शाम की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं। हैं ! हमारी क्या जिंदगी ? हमारे रिक्शे में बैठ कर लोग आईसक्रीम तो खायेंगे पचास रूपये की पर हमारा किराया देने में नंगापन दिखायेंगे हमसे तो अच्छे जानवर होते हैं' । हम तो एकदम झंड हो गए ! सोचा; कि कुछ ज्यादा ही गरीब मिल गया… । अबकी से कुछ खाते-पीते गरीब मिले तो उससे पूछेंगे ।

दूसरा सवाल -अपने नेता और सरकार से आपको क्या उम्मीद है ?(कुछ खाता-पिता गरीब था) उत्तर- सब स्साले अपना पूरा कर रहे हैं । देश की किसको पड़ी है, अपनी सुविधाएँ अपना वेतन तो जब मर्जी तब बढ़ा लेते है ऊपर से भ्रष्टाचार द्वारा अपनी दसियों पुश्तों के लिए जमा कर लेते हैं , जैसे इनकी आने वाली पीढियां अपाहिज पैदा होनी होंगी । भगवान् करे अपाहिज ही पैदा हों। ये ही स्साले गल-गलकर मरेंगे ।और... और ना जाने वह क्या-क्या बोलता चला गया। वैसे आप अंदाजा लगा सकते हैं ।
तीसरा सवाल - अब देश का भला कैसे हो सकता है ? उत्तर-अब भला नहीं हो सकता , कैसे हो सकता है ? अब तो भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, कार्यालयों में बैठे हरामगिरी, वेतन में एक सीमा से अधिक अंतर और इस तरह की बहुत सी अन्य बुराईयाँ हमारे नेताओं-अधिकारियों-कर्मचारियों के ही नहीं आम आदमी तक के खून में समा गयी है। अब कैसे सुधार हो सकता है ? (ये कुछ पढ़ा-लिखा बेरोजगार गरीब लग रहा था) हाँ ! सुधार का मौका था आजादी के समय , क्योंकि बहुत समय की गुलामी से आजाद हुए थे जो चाहते वह कर सकते थे पर हमारे उस समय के तथाकथित सर्वमान्य और आज तक पूजे जाने वाले नेताओं ने वह सब नहीं किया जो वास्तव में किया जाना चाहिए था।
अभी वह बोलना ही चाह रहा था कि मैंने टोक दिया और नया प्रश्न कर दिया, ये सोच कर कि ये कुछ पढ़ा लिखा गरीब लग रहा है ।

प्रश्न- फिर भी कोई तो उपाय हो सकता है ? उत्तर - हाँ उपाय हो सकता है अगर पाकिस्तान हमला कर दे तो, अगर इतना बड़ा भूकंप आ जाये, कि; देश की बड़ी इमारतें, बड़े नेता, बड़े लोग, बड़े अधिकारी सभी का बीज भी न बचे । मतलब; प्रलय आ जाये । ऐसे में कुछ साधारण लोग भी मरेंगे पर भला तभी हो पायेगा। इन दुष्टों का संहार होना जरुरी है ।
सवाल और भी बहुत से थे पर एक विशेष बात पर दिल-दिमाग सब सुन्न हो गया , जब एक पढ़े लिखे गरीब ने एक बात समझाई उसने कहा; जितना "ये दुष्ट"देश से अपनी सेवाओं के बदले में वसूलते हैं ( दो सौ अट्ठावन लाख करोड़ रूपये विदेशी बैंकों में और साठ लाख करोड़ अपने देश में ) शायद उससे कम में तो दाउद इब्राहीम अच्छी व्यवस्था चलाएगा । और उसका डर ! तो ऐसा कि हमारे कानून वालों को उससे प्रशिक्षण लेना चाहिए।
बस उसे यहाँ लाकर उसके सारे जुर्म माफ़ करके उसे व्यवस्था सोंप देनी चाहिए। यकीन मानो "वह" विदेशों में जमा सब धन दो महीने में ही वापस ला सकता है, वह यहाँ के भ्रष्टाचारियों का "मूत" निकाल सकता है। वह कोई खर्चा भी नहीं लेगा; क्योंकि अपना खर्चा वह इन दुष्टों से वसूल लेगा । बस उसका मन परिवर्तन करा दो । कोई उसे डाकू से वाल्मीकि बना दो ।

Tuesday, June 1, 2010

अब आगे क्या होगा पता नहीं ?

एक बार मुझे अपने घर के रास्ते में एक कांटा चुभा जूता छेद कर अन्दर तक चला गया बहुत दर्द हुआ; बड़ा, लम्बा-मोटा था मैंने निकाला और किनारे फैंक दिया फिर भूल गया एक दो दिन तक हलकी पीड़ा रही; उसके बाद तो बिलकुल भी याद रहा

कुछ दिन बाद मेरे बेटे ने शाम को लंगड़ाते हुए शिकायत करी; कि उसे उसी रास्ते पर दिन में कांटा चुभा, और क्योंकि वह चप्पल में था तो पांव में ज्यादा अन्दर तक गया और अब पीड़ा हो रही है उसे सावधान रह कर चलने और खेलने की नसीहत देकर मैं एक दो दिन में फिर भूल गया

कुछ दिन बाद हमारे क्षेत्र के कुछ लोग जिनके पास खाली समय प्रयाप्त होता है। वह आये और उन्होंने बताया कि रास्ते में कांटे और कुछ गन्दगी हो जाती है उसे साफ करने के लिए हमने एक समिति बना दी है और 'हम', लोगों से इसमें आने वाले खर्च के लिए चंदा एकत्र कर रहे हैं आप भी दो। हमें यह कार्य ठीक लगा, हमने उन्हें चंदा देदिया
अब वह नियमित तौर पर चंदा लेने आने लगे, पहले महीने में एक बार, फिर; साप्ताहिक
कुछ समय गुजरा; हमें भी, और अन्य लोगों को भी लगा; कि चलो काँटों से तो मुक्ति मिली।

लेकिन ऐसा हुआ नहीं कुछ समय बाद काँटों की शिकायतें फिर से मिलने लगीं, अपितु अधिक मिलने लगीं स्वयं मैंने भी देखा संभल कर चलें तो जरुर कांटा चुभ जाये
क्या हुआ ? उनसे पूछा जो चंदा लेने आते थे, उन्होंने बताया; कि चंदा कम पड़ने लगा बढ़ाना पड़ेगा, तभी व्यवस्था हो सकती है क्षेत्र के लोगों की सभा बुला ली गयी..., उनका विरोध हो गया...., नयी समिति वालों ने कहा; कि हम करेंगे अच्छी व्यवस्था, "वो सौ बढ़ाने को कह रहे हैं हम पचास रुपये बढाकर ही ये काम करेंगे" सबको बात सही लगी दरअसल कोई नहीं चाहता था कि उसे या उसके बच्चों को कांटे चुभें ...........

कुछ समय बाद नयी समिति ने भी वही नाटक कर दिया इस बार पुरानी वाली समिति ने अपना दावा ठोक दिया; कि हम करेंगे सही व्यवस्था ……

इसी तरह चल रहा था, कि "हमारी कालोनी में एक नए निवासी गए कुछ समय बाद जब उन्हें इस अवस्था का ज्ञान हुआ तो उन्होंने एक सुझाव दिया; कि हम केवल रास्ते से कांटे क्यों साफ करवा रहे हैं। क्यों जहाँ से वो कांटे रास्ते पर रहे हैं वही से उन्हें साफ करवाएं"

सभी को सांप सा सूंघ गया, "ये बात आज तक क्यों नहीं सूझी" जब समझ आया तो सभी ने बात का समर्थन किया। पर; जो कांटे साफ करने के लिए चंदा करते थे, वह एकदम से चुप हो गए, क्या कहें विरोध करें तो जानता के बुरे, करें तो अपनी कमाई छूटे।
निगले बन रहा उगले बने ऐसी स्थिति हो गयी है

अब आगे क्या होगा पता नहीं ?

पर हम तो उन मूल बदलाव लाने वाले के साथ में हो गए हैंजो समस्या को जड़ से समाप्त करना चाहते हैं