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Thursday, February 26, 2009

हम आजाद हैं

हाँ; “हम आजाद हैं” हड़ताल करने के लिए (भारत माता की जय बोल कर तोड़-फोड़ करने के लिए)
हाँ; “हम आजाद हैं” सरकारी सेवा में रह कर सरकार को ही गाली देने के लिए।
हाँ; “हम आजाद हैं” सरकार से वेतन लेते हुए ऊपरी कमाई करने के लिए।
हाँ; “हम आजाद हैं” नेताओं-पार्टियों की हाँ में हाँ मिलाने के लिए।( उनके कार्यकर्त्ता बन कर)
हाँ; “हम आजाद हैं” चुनावों में वोट न देने के लिए (फ़िर भी सरकार को दोष देने के लिए)
हाँ; “हम आजाद हैं” नेता बनने के लिए चाहे खूनी-अपराधी क्यों न हों।
हाँ; “हम आजाद हैं” अंग्रेजी में शिक्षा लेकर भारतीयता को हेय समझने के लिए(गरियाने को)।
हाँ; “हम आजाद हैं” कानून तोड़ने के लिए, नेता-अधिकारी या उनके रिश्तेदार हों तो।
हाँ; “हम आजाद हैं” अदालतों में मामले लटकाने के लिए।( वकील बनकर)।
हाँ; “हम आजाद हैं” फिल्मों के नाम पर अश्लीलता दिखने को।
हाँ; “हम आजाद हैं” अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए(चाहे अपने महापुरुषों को ही गाली दें)
हाँ; “हम आजाद हैं” कहीं पर भी लघु-शंकादी या खंखार के थूकने के लिए।
हाँ; “हम आजाद हैं” आम आदमी के रूप में सब कुछ सहते जाने के लिए।
और केवल हम ही क्यों हमारे यहाँ आकर विदेशी, और विदेशी कम्पनियां भी आजाद हो जाती हैं
कीटनाशक मिले पेय बेचने के लिए , हानिकारक दवाएं, खाद्य-पदार्थ व अन्य सामान मनमाने मूल्यों
पर बेचने के लिए।
जब हम गुलाम थे तब हमें इतनी आजादी कहाँ थी।

सुखराम को सजा

सुखराम को सजा !(अस्सी की उम्र में, तेरह साल मुक़दमे के बाद)
वो भी तीन साल की
इससे तो अच्छा था कि दो-चार साल और रुक
जाते।

फ़ैसला देने को,
अपने आप फ़ैसला हो जाता
(अस्सी के तो हो ही गए थे)
वैसे अभी चांस दे ही रखा है।

Tuesday, February 24, 2009

ऑस्कर

न्यूज चैनलों का (सप्ताह भर की कमाई),
जुगाड़ (नई व्यवस्था का फंडा
मेहनत रहमान की ऑस्कर हौलीवुड का
और कमाई हमारे न्यूज चैनलों की)।
एक और बात, "घर का जोगी जोग न आन गाँव का
सिद्ध",
जब तक विदेशी सम्मान न दें तब तक
कोई सम्मानित कैसे हो सकता है। विश्व सुंदरी
चुन कर सुन्दरता कैसी होती है हमें विदेशी ही
बताते हैं,हमारे यहाँ की सुन्दरता अनकल्चर्ड
होती है ,विद्वान कौन है हमें विदेशी ही बताते
हैं,हमारे यहाँ के विद्वान अंग्रेजी नहीं जानते
इसलिए कैसे विद्वान हो सकते हैं।
वरना इन्हीं रहमान साहब के कई गाने पहले ही
बहुत अच्छे लोकप्रिय हुए हैं।
जिन्हें आदमी
किसी भी समय गुनगुना सकता है ,जबकि
जयहो गाने के बोल ही बहुत कोशिश के बाद भी
समझ आने मुश्किल हो रहे हैं।
लेकिन ऑस्कर मिला है तो अच्छा ही होगा मुझे
संगीत की समझ है भी नहीं।
वैश्विक आर्थिक मंदी
में कुछ बड़ी वैश्विक कम्पनियों की भारत में
पाँव पसारने की कोशिश न हो यह ऑस्कर।
मेरा शक इसलिए भी है की जो फिल्में इससे पहले
ऑस्कर के लिए नामित हुयी हैं वह इससे इक्कीश
ही थी।
लेकिन किसी हौलीवुड वाले ने निर्देशित नहीं की थी ।

Monday, February 23, 2009

स्लमडॉग....

स्लमडॉग….. को अवार्ड
बड़ा अच्छा लगा
पर एक बात के लिए बड़ा मायूस भी हुआ

की रिमिक्श गाने वालों की, अश्लील गाने
लिखने वालों की रोजी-रोटी कैसे चलेगी ।
अर्थ-अनर्थ फिल्में बनाने वाले भी क्या
अब समझेंगे कि विवादित विषयों से आग लगाने
के बदले साधारण विषय भी नाम कमा सकते हैं ।

Sunday, February 22, 2009

कांटे

"कांटे न हों तो गुलाब का क्या होगा"?
कोई भी झपट कर तोड़ लेगा,
काँटों के भय से ही तो,
जो उसकी और बढेगा,
वो हाथ, "मर्यादित होगा"
वह झपटेगा नहीं; "प्यार से तोड़ेगा
और सहेज लेगा"।

शराब

बहुत बुरी चीज है दारु,
सरकार जन-हित में बताती है
पर
अपने ठेकों पर स्वयं-हित में खूब बिकवाती है।

इसकी दादागिरी वाला कानून देखो ,
कोई और बेचे तो गैरकानूनी बता कर जेल भिजवाती है।

Saturday, February 21, 2009

नीयत-संतोष

10,20,25,50 हजार वेतन लेकर नीयत नहीं भरती, “पूरा नहीं पड़ता”।
10,20,25,50 रूपये रिश्वत लेकर संतोष हो जाता है, शायद; “पूरा पड़ जाता है”।
"शाम को दारू जो पीनी है..... आख़िर बुरे काम का नतीजा

भी तो भुगतना है"।

हड़ताल

हड़ताल,हड़ताल,हड़ताल(मोटे शब्दों को पढ़ कर भी समझ सकते हैं )
कहीं बच्चों की शिक्षा दांव पर,
कहीं यात्री परेशान ,तो कहीं बीमार हलकान
मतलब…..कटना आम आदमी(जनता)को है।

उसमें हड़ताली भी आ जाते है।
क्यों छोटी-मोटी मांगों के लिए हड़ताल करते हो (भूखे तो नहीं मर रहे न)
बड़ा सोचो,बार-बार हड़ताल करने से अच्छा है कि
घर बैठे वेतन पाने के
लिए एक ही बार हड़ताल करो।
बड़ी हड़ताल करो न।
चुनाव आने वाले हैं ,सरकार भी नाक रगड़ कर मानेगी,और कुछ कर नहीं सकती
अगर करे भी तो न्यायलय है ही उसकी नजर में जनहित नहीं कर्मचारी हित सर्वोपरि होता है।

Sunday, February 15, 2009

कौआ

भारतीय समाज में कौए को आमतौर पर अच्छा नही माना जाता।
कारण, शायद उसकी कर्कश आवाज, कुटिल बुद्धि, तांक-झांक करने
की आदत, उसका काला रंग आदि हो।
लेकिन,
अपनी इन बुराईयों के कारण दुत्कारे जाने के बावजूद, वह
सम्मान भी पाता है। अटरिया पर कागा बोले तो, त्यौहार या
संक्रांति हो तो,कौआ ग्रास खिलाने को, हमारे यहाँ तो बच्चे
को आशीर्वाद भी काक-चेष्टा का दिया जाता है और काले रंग का टीका
भी कौए को याद करके लगाया जाता है और पितृपक्ष में तो कौआ
विशेष सम्मान पाता है।
एकता
में कौओं का कोई सानी नहीं इनके साथी के साथ कोई घटना घट
जाए तो या कोई इनके घोंसले को छेड़ दे तो, मतलब, जब ये अपनी
एकता प्रर्दशित करते हैं तो अपनी कांव- कांव के आगे किसी की नहीं
सुनते"एक ही जगह पर मंडराते" रहते हैं। हमारे गांवों में
दो तरह के कौए होते हैं एक जरा ज्यादा काला व बड़ा होता है, उसे
सच्चा कौआ कहते हैं ।वैसे गुण-अवगुण लगभग एक जैसे होते
हैं। खाने में सामान्य गंदगी से लेकर कुछ भी अच्छा-बुरा खा
लेते हैं। अपनी इसी आदत के कारण पहले जैसे विश्वसनीय नहीं रहे।
वरना पहले तो हमारा ग्रामीण समाज इन पर बहुत भरोसा करता था,
अब तो गाँवों से इनकी संख्या शहरों को पलायन कर गई है। क्योंकि
गावों में खाने व तांक- झांक करने के अवसर कम होते हैं, शहरों
में तरह- तरह के खाने या ये कहना चाहिए प्रयाप्त जूठन उपलब्ध
होती है। और अपनी जिज्ञासु(खोजी)प्रक्रति के कारण शहर इन्हें अपने लिए
ठीक लगता है। हमारे यहाँ एक पौराणिक कथा के अनुसार इनके एक पूर्वज
ने अपनी प्रकृतिवश श्रीराम की पत्नी माता सीता के पाँव में चोंच मार दी
जिससे रक्त निकल आया, भगवान राम को क्रोध आ गया उन्होंने बाण से
कौए की एक आँख फोड़ दी। तब से यह एकचक्षू माना जाता है। इसीलिए
बहुत चंचल होता है। वैसे काकभुषण्डी के रूप में इनके पूर्वज
ने अच्छा सम्मान भी पाया है।
आप भी सोच रहे होंगे की कौआ-कौआ -कौआ ये कौआ पुराण क्यों लिखने
लगा, लेकिन क्या करूँ जब से टी.वी. न्यूज चैनल चले हैं, बुरा मत मानना
मुझे इन चैनलों के रूप में कौए ही कांव-कांव करते सुनाई देते हैं।
अब समानताएं ढूंढना आप भी शुरू कर दो। हाँ चुनावों को इनके लिए पितृपक्ष

माना जा सकता है।

Wednesday, February 11, 2009

पिंक चड्डियाँ

वाह क्या तरीका चुना, भारत की आधुनिक(प्रगतिशील) ललनाओं ने,
(जरुर टी. वी. चैनल वालों ने बताया होगा। इनके अनुसार )
इतना अनोखा ,गौरवपूर्ण,सौहार्दपूर्ण,गाँधीवादी तरीका अपनी
आजादी के लिए होने के बावजूद इन्हें अपना चेहरा व पहचान
छुपाने की जरुरत पड़ी
धन्य हो भारतीय नारी आख़िर यही साबित किया कि , शील, शर्म, संकोच ही तेरे संस्कार हैं।
आख़िर क्यों कभी शराबियों और कभी टी.वी.वालों के बहकावे में आती हो
जिससे मुंह छुपाना पड़े ऐसा कल्चर क्यों अपनाती हो। (अब देखो न श्रीराम सेना को सब ग़लत बताते हैं फ़िर भी वह मुंह उठा के बात
करते हैं )

Monday, February 9, 2009

चक्रम

चुनाव
लो भाई आ गया चुनाव का मौसम, बस घोषणा होनी बाकि है।
एक बार फ़िर हम बेवकूफ बन कर अपनी पीठ थपथपाएंगे प्रचार-
पार्टी वाले,(कार्यकर्त्ता कहें या कर्मचारी) खायेंगे-पियेंगे मौज
करेंगे…. और क्या।

चांस
चुनाव लड़ने के लिए टिकट देने में हाई-कमान जितना सोचता है
उतना हम वोट देने में नही सोचते । जबकि हाई-कमान के पास तो
टिकट कैंसल का चांस होता है ।
काश हमारे पास भी ऐसा ही चांस होता। तो शायद भ्रष्टाचार
कुछ कम होता।


कल्याण सिंह
लौट के बुद्धू घर आए थे
पर
फ़िर बुद्धू(अति महत्वाकांक्षी) बन कर चले गए।

विवादित ढांचा
राम मन्दिर या बाबरी मस्जिद उसे क्या कहें(जो अब नही है)
कुछ समझ न आए , क्योंकि मैंने सुना है की जहाँ
नमाज अता न हो रही हो उसे मस्जिद नहीं माना जा सकता,
और मन्दिर तो बाबर ने सदियों पहले तोड़ दिया था।
तो……
ये केवल जिद तो नहीं।( दोनों समुदायों की)

Saturday, February 7, 2009

वैलेंटाइन डे

समर्थन - विरोध
रावण की बहन सूर्पणखा भी वैलेंटाइन (डे नहीं) "डेली"
मनाती थी ।
एक दिन राम-लक्ष्मण के पास चली गई (वैलेंटाइन मानाने)
लक्ष्मण ने विरोध कर दिया.....

नाक काट दी। आज भी बहुत से रावण हैं जो अपनी बहन बेटियों को सूर्पणखा की तरह व्यवहार करने से खुश रहते हैं ,सरकार में भी इनके समर्थक होते हैं जो इस रक्ष: संस्कृति को बढ़ावा देते हैं , टी.वी.चैनल वालों में भी इसको बढावा देने की होड़ मची है क्योंकि ये केवल पैसा कमाना चाहते हैं इसलिए दोनों को उकसाते हैं "चोर को कहें चोरी कर के दिखा, साहूकार को कहें रोक सके तो रोक"। "इनके दोनों हाथों में लड्डू" ।

Monday, February 2, 2009

पब्लिक स्कूल

होड़

तीन वर्ष (माँ की गोद व आँगन में खेलने वाले )
की उम्र में स्कूल ! (बच्चे के लिए टेंशन)
भविष्य के लिए (अच्छा नौकर बनने को)
वर्तमान का होम (दादा-दादी की कहानियों
से सीखने के दिनों में)
पता नहीं बच्चे से माँ-बाप परेशान
या
(ज़माने को देख कर )
ज़माने को दिखाने के लिए

आज के ज्यादातर सफल व्यक्ति क्या तीन साल की उम्र में स्कूल गए थे ?
पब्लिक स्कूलों के जाल में उलझे माता-पिता नहीं समझ पा रहे कि
इन स्कूलों ने होड़ पैदा कर दी है।
किसलिये ?
स्कूल (वर्तमान में पैसा कमाने के लिए)
माता-पिता (भविष्य में ज्यादा पैसा कमाने के लिए )
पर
पैसा तो बिना पढ़े-लिखे भी अच्छा कमा लेते हैं
पिसता है कौन ?
बेचारा बच्चा