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Friday, April 20, 2012

तब की व्यवस्था - अब की अव्यवस्था !!!!


क्योंकि ये व्यवस्था ही खोखली है इसमें न कुछ प्राकृतिक है न सांस्कृतिक | हमारी स्वदेशी व्यवस्था में न जंगल ख़त्म होने का भय था न पानी सूखने का, न अनपढ़ रह जाने का अपमान था न बेरोजगारी की मज़बूरी, न बड़ा अधिकारी होने का दंभ था न उच्च शिक्षित हो कर उजड्ड नेताओं के पांव छूने की लाचारी | क्योंकि अपना हाथ जगन्नाथ था | हर कोई अपनी विद्या में निपुण था |

हमारी वो पारंपरिक व्यवस्था जिसमे नौकरी की मानसिकता नहीं थी,जिसमे उद्योगों का केन्द्रीकरण नहीं था,जिसमे शिक्षा-चिकित्सा का केन्द्रीकरण नहीं था वह अंग्रेजों ने योजनाबद्ध तरीके से ख़त्म करने के लिए जो व्यवस्था बनायीं थी वह ही आजादी के बाद लागू रही जिसका परिणाम आज देश भोग रहा है | |

आज इस बात को कहना मजाक सा लगता है कि इस व्यवस्था के आलावा भी कोई व्यवस्था हो सकती है; विश्वास नहीं होता | जबकि पहले जो व्यवस्था यहाँ थी उसके कारण हम विश्व में श्रेष्ठ थे हमारी अर्थव्यवस्था विकेन्द्रित होने के कारण कोई गरीब नहीं था सब संपन्न थे | बिमारियों का इलाज करने पर बीमारी बढती नहीं थी, अपराध ख़त्म करने के नाम पर अपराध बढ़ते नहीं थे,रोजगार के लिए लोग सरकारों का मुहं नहीं ताकते थे, और सुरक्षा के लिए फ़ौज की कमी नहीं होती थी |

हमारी इसी स्वतंत्रता को समाप्त करने के लिए अंग्रेजों ने जो व्यवस्था (कु) चक्र यहाँ चलाया था वह हमारे आजादी के समय के तथाकथित नेता नहीं समझ पाए | जो समझे थे महात्मा गाँधी ! उन्हें मंदिर के भगवान की तरह लोगों के मन में बैठा कर उनके नाम से एक नेता भ्रष्ट पुजारी की तरह मनमानी करने लगा और उसने किसी की नहीं सुनी |

उस व्यवस्था के कारण हमारे पारंपरिक कुटीर उद्योग चाहे लोहे का हो या मिटटी का, चाहे शिक्षा हो या चिकित्सा या घरेलु सामान का, सब बड़े उद्योगों की भेंट चढ़ गया | वो संपन्न लोग आज नौकरियों की तलाश में भटक रहे हैं जो कभी सिद्धहस्त कारीगर होते थे कपड़ा बनाना हो या कुल्हाड़ी, बाल्टी बनाना हो या खेत में चलाने के लिए हल, सुई बनानी हो या संबल सब घर-घर में कारीगर थे और केवल कारीगर ही नहीं थे कुशल आविष्कारक भी थे | इसी व्यवस्था के कारण कोई अशिक्षित नहीं था, घर-घर में वैद्य शिक्षक और सुरक्षा के लिए सैनिक होते थे |

आज की व्यवस्था में एक बुराई का समाधान करो तो उसके कारण दूसरी बुराई खड़ी हो जाती है जैसे एक बीमारी के इलाज की दवा खाते- खाते उस दवा के दुष्प्रभाव से दूसरी बीमारी हो जाती है | एक समस्या का समाधान ही तब होता है कि उससे बड़ी समस्या पैदा कर दी जाये |

इसका उपाय है अपने इतिहास को जानना; जो गलतियाँ हुयीं उन्हें सुधारना और जो अच्छाईयाँ हैं उन्हें स्वीकारना | इस व्यवस्था को चरण बद्ध तरीके से समाप्त करना |

Saturday, September 24, 2011

चोर-चोर,........चोर-चोर.....चोर्चोर्चोर्चोर,चोर......

एक फिल्म देखी थी बहुत पहले; नाम पता नहीं, वैसे जिस दृश्य की मैं बात कर रहा हूँ वह और भी कई फिल्मों में दीखता रहता है।एक चोर चोरी करके भागता है तो जिसकी चोरी हुयी वो चोर-चोर चिल्लाते हुए उसके पीछे भागता है; जाहिर है चोर तेज दौड़ता है और जब देखता है कि लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा है तो स्वयं भी चोर-चोर चिल्लाते हुए भागने लगता है क्योंकि जिसका सामान चोरी हुआ था वह थोड़ा पीछे रह गया था सामान्य भीड़ को क्या पता कि कौन चोर है, वास्तविक चोर बड़ी चतुराई से रास्ता काट कर साफ बच निकलता है

आजकल हमारे देश में यही हो रहा है। बस; चोरों की संख्या अधिक है, वो सभी चोर-चोर चिल्लाने में लग गए हैं जाहिर है जनता भ्रमित होगी और फिर से उसी व्यवस्था की चक्की में पिसेगी। और जो सच में इन लुटेरों की कारगुजारियों को देश की जनता को समझाने वाले हैं, जिन्होंने जनता को पहचान करा दी है कि लुटेरे कौन हैं और असली में; "लुटने का कारण" क्या है उन्हें पछाड़ने का प्रयास हो रहा है।

कितनों को पता था (या अभी भी है !) कि आजादी के नाम पर “एग्रीमेंट ट्रान्सफर ऑफ पॉवर ”पर हमारे नेताओं ने अंग्रेजों से सत्ता ली थी;और वही व्यवस्था आज देश की सभी बुराईयों की जननी है।
वरना; अभी तीन-चार साल पहले किसे मालूम था कि भारत का तीन सौ लाख करोड़ अवैध रुपया विदेशी बैंकों में जमा हैं और ये कितना होता है। शुरू-शुरू में तो ७०-८० लाख करोड़ ही का अंदाजा था। धीरे-धीरे पता लगा कि तीन सौ लाख करोड़ बाहर और सौ लाख करोड़ देश में ही अवैध रूप से जमा है। इसीको भ्रष्टाचार कहते हैं। बड़े स्तर के भ्रष्टाचार से बड़ी पूंजी; छोटे स्तर के भ्रष्टाचार से जीविकोपार्जन और अय्याशियाँ, या बुराईयों में लिप्त रहना।

इसी तरह की और भी बुराईयों के विषय में कहा जा सकता है। हालाँकि; कुछ समझाने वाले कहते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है,अच्छी बात है जितने ज्यादा चिल्लाने वाले होंगे उतना ही जनता जागरूक होगीपर इनकी नीयत में खोट इसलिए नजर आता है कि ये इन सब बुराईयों को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं बताते या कोई उपाय इन्हें सूझा भी है तो केवल आधा-अधूराइस मामले में कोई राजनीतिक दल हो या कोई गैर सरकारी संस्था या मीडिया, सब एक जैसे दिख रहे हैं। और जो उपाय बता रहे हैं उन्हें नजरंदाज किया जा रहा है

दरअसल इस व्यवस्था रूपी छत्ते से शहद चूसने के लिए सबने अपना-अपना स्थान बना रखा है कोई नहीं चाहता कि जितना भी उसे मिल रहा है वह उसे छोड़ेउस छत्ते के लिए पराग जुटाने वाली मक्खियाँ यानि "मेहनत कश"बेचारी जनता; बाहर ही बाहर मंडराती रह जाती हैं। तब वहव्यवस्था द्वारा बनाये जाल, नशे के चंगुल में, लूट-खसोट,चोरी-बदमाशीऔर अन्य भी बुराईयों में फंस जाती हैं आपस में ही लड़ते-मरते और सड़ते हुए उनका जीवन गुजर जाता है