एक फिल्म देखी थी बहुत पहले; नाम पता नहीं, वैसे जिस दृश्य की मैं बात कर रहा हूँ वह और भी कई फिल्मों में दीखता रहता है। ‘एक चोर चोरी करके भागता है तो जिसकी चोरी हुयी वो चोर-चोर चिल्लाते हुए उसके पीछे भागता है; जाहिर है चोर तेज दौड़ता है और जब देखता है कि लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा है तो स्वयं भी चोर-चोर चिल्लाते हुए भागने लगता है’। क्योंकि जिसका सामान चोरी हुआ था वह थोड़ा पीछे रह गया था सामान्य भीड़ को क्या पता कि कौन चोर है, वास्तविक चोर बड़ी चतुराई से रास्ता काट कर साफ बच निकलता है ।
आजकल हमारे देश में यही हो रहा है। बस; चोरों की संख्या अधिक है, वो सभी चोर-चोर चिल्लाने में लग गए हैं । जाहिर है जनता भ्रमित होगी और फिर से उसी व्यवस्था की चक्की में पिसेगी। और जो सच में इन लुटेरों की कारगुजारियों को देश की जनता को समझाने वाले हैं, जिन्होंने जनता को पहचान करा दी है कि लुटेरे कौन हैं और असली में; "लुटने का कारण" क्या है उन्हें पछाड़ने का प्रयास हो रहा है।
कितनों को पता था (या अभी भी है !) कि आजादी के नाम पर “एग्रीमेंट ट्रान्सफर ऑफ पॉवर ”पर हमारे नेताओं ने अंग्रेजों से सत्ता ली थी;और वही व्यवस्था आज देश की सभी बुराईयों की जननी है।
वरना; अभी तीन-चार साल पहले किसे मालूम था कि भारत का तीन सौ लाख करोड़ अवैध रुपया विदेशी बैंकों में जमा हैं और ये कितना होता है। शुरू-शुरू में तो ७०-८० लाख करोड़ ही का अंदाजा था। धीरे-धीरे पता लगा कि तीन सौ लाख करोड़ बाहर और सौ लाख करोड़ देश में ही अवैध रूप से जमा है। इसीको भ्रष्टाचार कहते हैं। बड़े स्तर के भ्रष्टाचार से बड़ी पूंजी; छोटे स्तर के भ्रष्टाचार से जीविकोपार्जन और अय्याशियाँ, या बुराईयों में लिप्त रहना।
इसी तरह की और भी बुराईयों के विषय में कहा जा सकता है। हालाँकि; कुछ समझाने वाले कहते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है,अच्छी बात है जितने ज्यादा चिल्लाने वाले होंगे उतना ही जनता जागरूक होगी। पर इनकी नीयत में खोट इसलिए नजर आता है कि ये इन सब बुराईयों को समाप्त करने का कोई उपाय नहीं बताते या कोई उपाय इन्हें सूझा भी है तो केवल आधा-अधूरा । इस मामले में कोई राजनीतिक दल हो या कोई गैर सरकारी संस्था या मीडिया, सब एक जैसे दिख रहे हैं। और जो उपाय बता रहे हैं उन्हें नजरंदाज किया जा रहा है।
दरअसल इस व्यवस्था रूपी छत्ते से शहद चूसने के लिए सबने अपना-अपना स्थान बना रखा है कोई नहीं चाहता कि जितना भी उसे मिल रहा है वह उसे छोड़े। उस छत्ते के लिए पराग जुटाने वाली मक्खियाँ यानि "मेहनत कश"बेचारी जनता; बाहर ही बाहर मंडराती रह जाती हैं। तब वहव्यवस्था द्वारा बनाये जाल, नशे के चंगुल में, लूट-खसोट,चोरी-बदमाशीऔर अन्य भी बुराईयों में फंस जाती हैं आपस में ही लड़ते-मरते और सड़ते हुए उनका जीवन गुजर जाता है ।
bahut acchhaa likha hai bhayi...
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