छः महीने की सजा कोई कम होती है…? जिसने कभी झूठे-सच्चे मामलों में लोगों को जेलों में महीनों बंद करवाया होगा वह आज स्वयं जेल में बंद होने जा रहा था । कितना बड़ा अहसान किया था हमारी न्याय व्यवस्था पर। जिंदगी भर की जबरदस्ती कमाई हुयी इज्जत,मान-सम्मान को बचा ही लिया था । पर क्या कहें उस घड़ी को जब अदालत से निकलते समय समाचार चैनलों की आँख इन पर लग गई, और वो इनका मुस्कराता चेहरा देख न सके। उन्होंने सारी बातें उधेड़ कर रख दी, जैसे इतने बड़े देश में यही एक मामला होगा। न जाने कितने अधिकारी इससे भी गंभीर आरोपों से बच निकले।
अपने आप को कोस कर भी क्या करें पैदा ही ऐसे समय पर हुए जब टी.वी.चैनलों का बोलबाला रहा। सोचो ये फ़ैसला दस-पन्द्रह साल पहले आता तो कौन पूछने वाला था। हो सकता था कि ये साफ
कभी साहब थे, तो रौब था स्कूल वालों को कहा तो उन्होंने सर झुका कर या दोस्ती की खातिर रुचिका को निकल दिया। रुचिका के परिवार को परेशान करने वाले तो अपने ही मातहत थे, कैसे नहीं करते । लेकिन किसे पता था कि ऐसे दिन देखने पड़ेंगे जब वही विभाग वाले अब उन्हें घसीटेंगे। आज तक जिस कानून व न्याय व्यवस्था की जिन विशेषताओं से बचते रहे थे वही अब गले की फांस बनती नजर आ रहीं हैं।
अब तो इनका गुनाह इतना बड़ा नजर आ रहा है कि कहीं इन्हें पाँच-सात बार फांसी पर न लटकाया जाए। इन जैसे पता नहीं कितने होंगे जो बचे रहे(क्योंकि कानून व न्याय व्यवस्था है ही अपराधी को बचाने के लिए) पर ये बेचारे फंस गए। "आप डूबे- डूबे, बाम्हणा ले डूबे जजमान" अब अपने साथ न जाने कितने लोगों को सजा दिलवाएंगे। पर शायद बच भी जायें क्योंकि न्याय की आंखों पर पट्टी और कानून के हाथ बंधे होते हैं। जरुरत राठौर का साथ देने की ,वह बेचारा अकेला पड़ गया है, कहीं आत्महत्या न करले क्योंकि इतना शर्मिंदा होने की तो कभी सोची ही नहीं थी।
No comments:
Post a Comment
हिन्दी में कमेंट्स लिखने के लिए साइड-बार में दिए गए लिंक का प्रयोग करें