ताजा प्रविष्ठियां

Friday, March 1, 2013

कृषी के बिना कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो किसी को आधी रोटी भी उपलब्ध करा दे ।

"बजट पर बकवास" 

सभी अपने अपने "खयाली पुलाव" पकाने में लगे हैं ! कुछ दिन के पेट भरने का इंतजाम हो जायेगा । 

इस व्यवस्था में प्रतिवर्ष के बजटों से कुछ अच्छा होना होता तो देश का ये हाल थोड़े ही होता । इसलिए व्यवस्था को बदलने वाला बजट होना चाहिए ।


व्यवस्था ऐसी है कि जो घर घर में उद्योग धंधे थे उन्हें ख़त्म करके बड़े उद्योगों का जाल बुना गया, जो गाँव-गाँव में स्कूल होते थे (जिनमे विद्वान् तैयार होते थे) उन्हें बदल कर नौकर बनाने वाले स्कूलों में बदला गया, जो व्यक्ति विद्वान् हो कर भी अपने हस्तकौशल से वस्तुओं का निर्माण करके समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था उसे कुर्सी (क्लर्क-चपरासी) का लालच देकर निट्ठल्ला बना दिया, खेती की जमीन को उद्योगों- कालोनियों, परियोजनाओं के नाम पर और किसानों को मुआवजे का लालची बना कर जमीन और किसान दोनों ही बर्बाद कर दिए .....कृषी के बिना कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो किसी को आधी रोटी भी उपलब्ध करा दे ।

कहने का मतलब सामजिक ढांचा ही गड़बड़ा दिया है ;


फिर कहते हैं महंगाई कम नहीं हो रही ! फिर चिंता करते हैं अपराध बढ़ रहे हैं ! फिर चिंता करते हैं बेरोजगारी बढ़ रही है ! फिर चिंता करते हैं रोजगार के अवसर कैसे बढ़ें ! फिर चिंता करते हैं देश बहुत बड़ा है ( कल शाम टी .वी चैनल पर एक कांग्रेसी मैडम कह रही थी 'कांग्रेस कैसे इतने बड़े देश की व्यवस्था संभालती है तुम्हें क्या पता', देश को बर्बाद करके  जैसे देश पर एहसान करते हों)।

और ये सब बर्बादी वाली व्यवस्था अंग्रेजों ने कुछ सोच-समझ कर ही बनायीं थी । उन्होंने जो हमारा सामाजिक ढांचा था उसे तहस नहस करना था । क्योंकि न यहाँ गरीबी थी, न यहाँ बेरोजगारी थी, न यहाँ निट्ठल्लापन था, हर कोई कर्मयोगी था, लेकिन सरकार पर निर्भर नहीं था | यहाँ तक कि सेना भी नाम मात्र की होती थी आम जनता में सभी सैनिक होते थे, जब देश को जरुरत पड़ती थी सब एकत्र हो जाते थे, बाकि समय अपना-अपना काम-धंधा करते थे ।
एक किसान ( जिसको जमींदारी प्रथा के नाम पर बदनाम किया गया) सबकी जरूरतों को ख़ुशी-ख़ुशी पूरा करता था । लोहा कूटने वाला लोहार, बाल काटने वाला नाई, कपडे सिलने वाला दरजी, हल जोतने वाला हलिया, लकड़ी का काम करने वाला बढ़ई, विद्यालयों में पढ़ने वाला विद्वान्, और भी जो जो कामगार होते थे, यहाँ तक कि राज व्यवस्था भी लगान के रूप में अपना हिस्सा इसी समय लेती थी, सभी फसल चक्र पूर्ण होने पर किसनों के पास पहुँचते थे अपना-अपना प्रयाप्त हिस्सा लेकर संतुष्टि से जीवन यापन करते थे । और इस सब में कहीं बेईमानी नहीं होती थी किसान दो मुट्ठी अनाज ज्यादा ही देता था, कामगार भी समय से अधिक ही काम करता था । देश सुखी सम्पन्न और खुशहाल था ।

अंग्रेजों ने जब अपना राज कायम किया तो न किसानों ने उन्हें लगान दिया न किसी और ने उनके काम किये , दरअसल उन्हें "कर प्रणाली"का अनुभव था जिसे हमारे यहाँ स्वतंत्र मानसिकता वाले लोगों ने स्वीकार नहीं किया, जिससे उन्होंने कानून बना कर लूटने का काम किया । उनको काम करने के लिए नौकर नहीं मिले, गुलाम बनने को कोई तैयार नहीं था तो उन्होंने इस सामाजिक ढांचे को ध्वस्त करने लिए ये व्यवस्था बनाई , जिसे समझ कर ही तत्कालीन स्वतंत्र मानसिकता वाले बुद्दिजीवियों ने लगातार उनके विरुद्ध आन्दोलन किये ।

पर 1947 में गद्दारी हो गयी । उसे सुधारो तब बजट की बात करो ।
चपरासी और क्लर्क कितने लोग बन सकते हैं ? वो भी सरकारी या सार्वजानिक क्षेत्र में । और मूल बात ये है कि कृषी के बिना कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो किसी को आधी रोटी भी उपलब्ध करा दे ।