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Sunday, March 11, 2012

नग्नता के लिए पुरस्कार

जो अभिनय करने में निर्वस्त्र हो सकता है उस अभिनेता/अभिनेत्री या कलाकार को पुरस्कार (गौरव), जो लेखन में नग्नता खुलेपन से लिख सकता/सकती है;उस लेखक/लेखिका को पुरस्कार, जो जितना अधिक नग्न चित्र बना सकता है; उस चित्रकार को सम्मान, जो जितना गन्दा गा सकता है उसे उतना ही अधिक सम्मान, ऐसे नर्तक-नर्तकी जो अश्लीलता से ठुमके लगा सकते हों; उन्हें सम्मान .......... और भी अन्य विधाओं में इस कलयुगी परंपरा को देखा जा सकता | किसी ने कहा है "गधे पंजीरी खा रहे हैं", या; हंस चुगेगा दाना तिनका कौवा मोती खायेगा.... ऐसा कलियुग आयेगा |
कई बार सोचता हूँ हमने ये कैसे मान लिया कि सभी बुराईयों के लिए कलियुग का ही दोष है | क्या ऐसी बुराईयाँ अन्य युगों में नहीं थीं ? हमारे पौराणिक धर्म ग्रंथों में तो जितनी भी ऐतिहासिक लड़ाईयों का वृत्तान्त है उसमे एक भी कलियुग का नहीं है | दूसरा; जितनी भी बड़ी लड़ाईयों का वृत्तान्त है वो निजी हितों के लिए न होकर धर्म-संस्कृति-संस्कार-सत्य और देश बचाने के लिए है |
और इस कलियुग में भी ऐसा ही हो रहा है; ऐसी लड़ाईयां निरंतर चलती रहती हैं | इन्हें साधारण युद्ध नहीं "संस्कृति युद्द"
कहना चाहिए | अगर ऐसे युद्ध न हों ( जो समय-समय पर होते रहते हैं और जिनके लिए कोई न कोई महापुरुष अवतरित होता है) तो शायद!! न प्रकृति बचे; न पर्यावरण, न संस्कृति बचे; न संस्कार, न देश बचे; न धर्म |
वो समाज कैसा होगा जब सभी उनकी तरह नंगे होंगे, उनकी तरह लुटेरे-हत्यारे होंगे,बलात्कारी होंगे ?
आज क्या है कि हमारी व्यवस्था ही बुराईयों को पैदा करने वाली साबित हो रही है वरना; जिस व्यवहार को हेय दृष्टि से देखा जाना चाहिए उसे समाज में सम्मानित किया जाता है। व्यवस्था इस सबको सही ठहराने के लिए कानून बना देती है । विदेशी संस्कृति के प्रभाव में सामूहिक रूप से कु संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है । किसी भी गलत कार्य को सही ठहराने के लिए कानून बनाने का चलन अंग्रेजों ने शुरू किया था; उसे ही लागू करने का काम आजाद होने के बाद भी यहाँ की सरकरों ने किया। व्यवस्था के रूप में नाम के लिए लोक तंत्र ( जिसमे दस विद्वान् बेकार माने जाते हैं ग्यारह मूर्खों के आगे ) ।
हमारी व्यवस्था बुराईयाँ,बेईमानी पैदा करती है ; आज कोई ईमानदार रहना चाहता है पर नहीं रह सकता, सभी उसके दुश्मन हो जाते हैं कोई उसे उपहास की दृष्टि से देखता है तो कोई प्रत्यक्ष उसके विरोध में खड़ा हो जाता । यही कारण है ईमानदार लोग हर जगह मारे जाते हैं। अगर व्यवस्था के द्वारा बुराईयों पर नियंत्रण रखना हो तो व्यवस्था को स्वयं उदहारण पेश करना चाहिए बुराईयों का विरोध करके, पर यहाँ तो व्यवस्था बुराईयों के लिए उकसाती है। एक जगह व्यवस्था कहती है शराब मत पीयो; ये शारीर,मन, समाज परिवार के लिए हानिकारक है, दूसरी ओर अपने आप अपने द्वारा खोली दुकानों पर बिकवाती है। एक ओर व्यवस्था हत्यारे को दण्डित करने के न्यायलय की व्यवस्था करती है दूसरी उसी न्यायलय के निर्णय को बड़ी न्यायलय निरस्त करती है |

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