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Sunday, August 28, 2011

"हौसला बढ़ता है हमारा; दुश्मनों की तादात देखकर"

देश में आज जन जाग्रति को देख कर ऐसा लग रहा है;देश वासियों नेदेश के दुश्मनको पहचान लिया है। इस जन जागरण में जिस तरह से मीडिया ने केवल संदेश वाहक रह कर; “आन्दोलन कारी नेतृत्व की भूमिका निभाई है; वह भी काबिले तारीफ है।

काश: ऐसी ही भूमिका समाज में व्याप्त किसी भी बुराई के विरुद्ध हो रहे जन संघर्षों में "इन" संदेशवाहकों की देखने को मिलती;तो शायद समाज में व्याप्त छोटी-छोटी बुराईयाँ विकराल रूप लेती। क्योंकि इनके पास वो नेटवर्क है जो आज देश के लगभग शत-प्रतिशत नागरिकों तक पहुंचा है। ये” “तिल को ताड़ और ताड़ को तिलबना सकने की कुव्वत रखते हैं,और ये इनकी खुश किस्मती है कि देश की जनता को चाहे इन पर कितना ही अविश्वास हो फिर भी वह जानकारी,सूचनाओं-समाचारों के लिए इन्हीं पर निर्भर है।
वैसे तो देश का प्रत्येक शिक्षित-अशिक्षित नागरिक देश के दुश्मनों को जानता है। और उनका खात्मा भी चाहता है; लेकिन सैकड़ों वर्षों से ऐसी व्यवस्थाएं रही हैं कि वह उन्हीं दुश्मनों और बुराईयों के द्वारा पालित-पोषित रहा है। यहाँ तक कि आजादी के बाद तो उन्हीं के द्वारा अय्याश और प्रभुत्वशाली हो गया है। वो अपने साथ हो रहे अन्याय पर तो बिलबिलाता है पर दूसरों के साथ स्वयं अन्याय करता है। इस मामले में ये प्रकृति के उस नियम को भूल जाते हैं जिसे किसी कवि ने साधारण सी भाषा में समझा रखा है 'बोया पेड़ बबूल का तो नीम कहाँ से होय' लेकिन ये डरे-डरे रहते हैं। कहीं ये व्यवस्थाएं सही हो जाएँ, तो इनकी अय्याशियों का क्या होगा ? या; जिनके प्रति अन्याय हो रहा है, कहीं उनमे आक्रोश जाग गया; तो क्या होगा ? अब इसमें ये बीच का रास्ता तलाशते रहते हैं, "सांप भी मरे और लाठी भी टूटे" केवल आवाज आती रहे।

ये वैसे ही है जैसे मगरमच्छ के ऊपर बैठ कर सवारी का आनंद ले रहे हों। इसमें डरते भी कि हैं एक एक दिन तो मगर मच्छ ने गोता खा कर उन्हें भी खा जाना है। और सच पूछो तो; हो भी ऐसा ही रहा है। आज कोई भी अपनी स्वाभाविक मृत्यु नहीं मर रहा (ऐसी मौत को हमारे समाज मेंगालीमाना जाता था) आज हर कोई डरा-डरा रहता है क्यों ? क्योंकि अपनी जड़ों से कटा हुआ है। क्योंकि उसने दूसरों का हक़ मार कर अपने लिए अय्याशी के साधन जुटाए हैं। हमारी परम्पराएँ,मान्यताएं भुला दी गयी हैं वसुधैव कुटुम्बकम और परोपकार की भावनाओं की हंसी उड़ाई जाती है, जो कि मानवता का आधार है। मनुष्य को आत्मकेंद्रित बना दिया। प्रतियोगिता का माहौल बना दिया गया;उस पर "जो जीता वही सिकंदर" वाली मानसिकता जमा दी गयी है। उद्देश्य के लिए कैसा ही रास्ता हो बस उद्देश्य पूर्ण होना चाहिए ये मानसिकता बनी; उस पाश्चात्य विचारधारा से, जो भारत को केवल एक भूमि का टुकड़ा मानती है। इस देश के इतिहास,संस्कृति-संस्कार-सभ्यता-साहित्य-परम्पराएँ सब उनके लिए ढकोसला है। "सबसे बड़ी दुश्मन" है हमारे भारत के लिए ये पाश्चात्य मानसिकता। जो भोग को ही सब कुछ समझती है।
इस सबसे गलत मानसिकता के कारण आज भारत के असंख्य दुश्मन हैं।

हमारे देश भारत में समय-समय पर आन्दोलन होते रहे हैं जिन्हें कभी धार्मिक कह दिया जाता है कभी सामाजिक कह दिया जाता है कभी राजनीतिक कह कर गलत व्याख्या की जाती है। क्योंकि अच्छाई-बुराई दोनों शाश्वत हैं, प्राकृतिक हैं। दोनों अपने को शक्तिशाली बना कर रखना चाहती हैं। लेकिन अगर बुराई शक्तिशाली रही तो समाज में दुःख बढ़ेंगे जो अंतत: प्रकृति को ही हानि पहुंचाएंगे। इसलिए भारतीय दर्शन के अनुसार स्वयं स्वस्थ,सुखी,संतुष्ट रहने वाला मनुष्य ही अपने, परिवार,समाज,देश,प्रकृति के लिए उपयोगी होता है।

इस समय भी भारत में एक आन्दोलन चल रहा है भारत के स्वाभिमान के लिए;"भारत स्वाभिमान आदोलन" मुझे तो लगता है कि सम्पूर्ण बुराईयों के विरुद्ध ऐसा जन आन्दोलन आदि शंकराचार्य के बाद शायद; अब ही हो रहा है। "व्यक्ति निर्माण से राष्ट्रनिर्माण"की भावना पर बीच में स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ ही महर्षि अरविन्द और स्वामी श्रद्धानंद ने द्वारा भी आन्दोलन चला पर इतनी जन व्यापकता नहीं पा सका।

लेकिन; इस सबसे व्यापक जनाधार वाले आन्दोलन के शत्रु भी कम नहीं आखिर विरोध करने में कोई बुराई नहीं छोड़ी स्वामी रामदेव जी ने, बिना शत्रुओं की परवाह किये अपने उद्देश्य की पूर्ति में बढ़ते रहे हैं। यही कारण है कि सदस्यों और अनुयायियों की संख्या बेशक करोड़ों में है पर शत्रुओं की संख्या भी कम नहीं है। .राजनैतिक शत्रु ( लगभग सभी पार्टियाँ और उनके नेता और कार्यकर्त्ता ),.शैक्षिक माफिया, क्योंकि स्वामीजी शिक्षा मुफ्त-अंग्रेजी बाध्यता मुक्त करने की बात कहते हैं,. लगभग सभी सरकारें और उनके भ्रष्ट कर्मचारी,. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और उनके द्वारा पालित-पोषित; जिनमे टी.वी.न्यूज (अन्य भी) चैनल और,. अंग्रेजी दवा कम्पनियां सभी प्रकार की (स्वदेशी-विदेशी),. वो स्वदेशी उत्पाद बनाने वाली कम्पनियां भी दुश्मन हैं जो केवल ठगने के लिए अपने धंधे को जमाये बैठी थी,. वो विदेशी ४००० से अधिक कम्पनियां जो आज भारत में विभिन्न प्रकार के जीरो तकनीक के सामान के द्वारा यहाँ कई प्रकार से लूट रहीं हैं जैसे कोला पिलाओ बीमार बनाओ-दवाएं खिलवाओ-कमजोरी के नाम से टॉनिक पिलवाओ,एक चक्र बना दिया,. वो नशा व्यापारी; शराब माफिया,गुटका माफिया,बीडी-सिगरेट माफिया और भी हैं,. भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी,व्यापारी,पत्रकार और सभी पेशेवर भ्रष्ट;यहाँ तककि; एक छोटा सा दुकानदार भी अगर बुरा है तो दुश्मन बना बैठा है,१०. विदेशी बैंक और , चिकित्सा माफिया ये कुछ मुख्य-मुख्य दुश्मनों को मैंने गिनवाया अगर इन की व्याख्या की जाये और इन पर आश्रित भ्रष्टों को पहचाना जाये तो संख्या कई करोड़ हो जाएगी।

उपरोक्त मानसिकता वाले, विदेशी और भ्रष्ट लोग तो इस आन्दोलन के शत्रु हैं ही; जाने-अनजाने हमारे धर्म संस्कृति को मानने वाले लोग भी इसके शत्रु बने बैठे हैं। जिन्हें पाखंडी कहना चाहिए ऐसे लोग, जो अपनी दुकान चला रहे हैं ऐसे लोग,इस तरह के दुश्मन तो हमें दिखाई ही नहीं देते। सीधी टक्कर जिन दुश्मनों से है उनसे तो सीधे लड़ा जा सकता है लेकिन "पीठ में छुरा घोंपने"वालों से कैसे बचा जाये इसका उपाय सोचना होगा। वरना हम धोखा खाते-खाते कब इस तरह के मीडिया के द्वारा जनता की नजरों में गिरा दिए जायेंगे कोई भरोसा नहीं।

जो भारत को अपनी माता के रूप में देखता है, वास्तव में देशभक्त है, जिसके शारीर में शुद्ध भारतीय खून है, जो अपने को ऋषियों का वंशज समझता है, उसका हौसला इन दुश्मनों को देख कर कम नहीं होता। वह और जोश से उठता है चलो कुछ और दुश्मनों की पहचान हुयी।
हौसला बढ़ता है हमारा;दुश्मनों की तादात देखकर,
ताकत
कम होगी हमारी;उनकी औकात देख कर