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Saturday, July 3, 2010

"हमारी सरकार की मज़बूरी है महँगाई बढ़ाना जरुरी है"

महँगाई के विरोध में तो बहुत आन्दोलन हो रहे हैं पर समर्थन में एक यही आन्दोलन देखा
बड़ा अचरज हुआ कि छाती ठोक कर महंगाई को सही ठहराने वाले ये कौन हैं ! इसलिए देखने सुनने चला गयातो देखा सरकारी दल (सत्ताधारी दल )के स्थानीय लोग हैं, कुछ छुटभइये नेता हैं जो एक - एक कर अपनी बात कहने के लिए रहे हैं

साथियो आपको सरकार के महँगाई बढ़ाने के निर्णय को जायज समझना चहियेआखिर देश के सभी नागरिकों और कम्पनियों का ध्यान सरकार को रखना पड़ता हैवर्तमान में जो महँगाई सरकार ने बढ़ाई है वह उसकी मज़बूरी हैतेल की जो बड़ी-बड़ी कम्पनियां हैं वह लगातार घाटे में जा रहीं थी ( क्योंकि उनके अधिकारीयों - कर्मचारियों के पांच सितारा खर्चे पूरे नहीं पड़ रहे थे ) जिससे [ आगे पढ़ें ]...... उन्हें बचाना जरुरी हैअगर वह लगातार घाटे में जाते हुए डूब जाती तो सरकार की कितनी बदनामी होतीऔर उन कम्पनियों के डूबने पर कितने लोगों की (पांच सितारा) अय्याशियाँ बंद हो जाती फिर यही कम्पनियां और अधिकारी तो चुनाव के वक्त हमारे नेताओं के काम आती हैंहमारा ( कार्यकर्ताओं का) खर्चा कैसे चलता है' ?

अब दूसरा आया......................

'.......“जिनगरीबों के लिए सब रो रहे हैंवोहमें क्या देते हैं, उल्टे चुनाव के वक्त जिसे जो चाहिए; "दारू से लेकर साड़ी-धोती" तक सब इन्हें देना पड़ता हैएक लाख में लड़ने वाले चुनाव को ये करोड़ों का बना देते हैं
और ये विपक्षी दल”, किस मुहं से विरोध कर रहे हैं; क्या ये चुनाव का खर्च अपने घर के पैसे से करते हैं ? जैसे इनके पिताजी जमा पूंजी रख कर गए हों,अगर रख कर गए भी हैं तो इन्हीं कम्पनियों की बदौलत या कुछ धन्नासेठों की बदौलत रख गए हैंअब उनका ख्याल तो सरकार को रखना ही पड़ता हैजबयेसत्ता में होते हैं तब ये रखते हैं'

अब एक और आया ..............

'......अब रहा गरीबों के लिए चिल्लाने का नाटक, तो भाईयो गरीब का क्या है; जो एक कटोरी सब्जी खाता है वह आधी कटोरी से काम चला लेगा, दाल नहीं भी खायेगा तो आसमान तो नहीं गिर जायेगा, अरे भई उसको नमक से रोटी खाने की तो आदत है ही ;सच में हम तो शौक में कभी-कभी नमक या चटनी से रोटी खाते हैं तो बहुत अच्छी लगती हैगरीब को तो रोटी खानी ही चटनी या नमक से चाहिए क्या पता देश के हालात कब बिगड़ जाएँ तब इन्हें ही तो लड़ना है और उस लडाई में क्या हो किसे पताअब वो दिन थोड़े ही हैं जब महाराणा प्रताप ने जंगलों में घास की रोटी खायी थीअब के महाराणा तो अपने स्विश बैंकों के खजाने का इस्तेमाल करने चल देंगे इसलिए भाइयोबहनो ये तो गरीबों के लिए अच्छी बात है कि वे अमीरों की तरह अय्यासियों में पड़ेंकम खाएं - गम खाएं तो स्वस्थ रहेंगेअमीरों की तरह मुहं टेढ़ा (केंसर ) या बदबूदार अजीबोगरीब बिमारियों से नहीं सड़ेंगे। सच पूछो पांच सितारा अस्पतालों में सड़ने में कोई मजा थोड़े ही है'।
'बाकी गरीब साधारण आदमी ने मरना वैसे भी है ही, कौन बचा आज तक; बचते तो केवल अमीर हैं चाहे सड़ते रहें उन्हें बचाए रहते हैंगरीब तो समृद्ध होएंगे तो भी दुर्घटनाओं या बीमारी से जब हस्पताल में पहुंचेंगे तो भी डाक्टरों-कर्मचारियों ने मारना है' ।

अब एक और आया कुछ दादा जैसा दिखने वाला......
'......सरकार को आखिर सरकार चलानी होती हैअपने नेताओं का पेट भरना,दवा के साथ दारू का भी इंतजाम करना पड़ता हैकेवल नेताओं का ही नहीं उनके बच्चों तक का ख्याल सरकार को रखना पड़ता है फिर पार्टी कार्यकर्ताओं के पेट का सवाल भी हैनौकरी और कामधंधों से पूरा नहीं पड़ताहम पर भी तो महँगाई का असर होता है '।

'अब विपक्षी अपना फर्ज निभा रहे हैं तो हमारा फर्ज बनता है कि हम सरकार का साथ देंइसलिए सब नारा लगायेंगे .. हमारी सरकार की मज़बूरी है महँगाई बढ़ाना जरुरी है' ।

कार्यक्रम अभी चालू ही है पर मैं चिंतन करता हुआ चला आया ; कि बातें तो इनकी भी सोचने के लिए दिमाग में खुजली करती हैं

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