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Monday, May 31, 2010

मैं और वो

सदियों से सोया ;
मैं अन्धकार में।
कोई आयेगा;

मुझे जगायेगा,

जैसे ;

इसी इंतजार में।

वो” ,

आया ;

एक बार नहीं ,

बार-बार आया ;

मुझे जगाया,

झिंझोड़ा;
और,

"दिया",
जलाया ।
पर,

हाय रे ;

मेरा
"आलस्य",

"अवचेतना",

और;

उससे भी बढ़कर,

"अहंकार" ।

मैं”,

“उसे”,

नहीं जान पाया

आलस्य में;

श्वांस छोड़ी
,
"दिया बुझाया" ।

अवचेतन में,

जाने क्या;

बड़बड़ाया ।

और;

अहंकार में तो ,


आँख खोली;


देखा-सुना,

चादर खींची,

और;

फिर सो गया

5 comments:

  1. बेहतरीन सन्देश और भावपूर्ण रचना फुलारा साहब !

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  2. बेहतरीन सन्देश

    bahut khub

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  3. शशक्त अभिव्यक्ति ... सच में हमारा आलसी .. हमारा एहंकार ही सबसे बड़ा शत्रू है ... अच्छी रचना है ...

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  4. बहुत सशक्त रचना...ये "मैं " ही है जो अज्ञान के अन्धकार में डुबो देता है...

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  5. behtreen ......lajawaab ...........ek sashakt rachna.

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