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Tuesday, May 25, 2010

शर्म

(तभी वह चाहता है कि सभी बेशर्म हो जाएँ तो उसे शर्म करने की आवश्यकता हो और यह खेल अनवरत रूप से चल रहा हैचाहे आज किसी भी क्षेत्र में देख लें )।
भारतीय
संस्कृति-सभ्यता-समाज और व्यक्तिगत आचरण में शर्म का बहुत ही महत्त्व हैअब तो यह कहना चाहिए कि ; “था”। सभी ने शर्म को त्याग दियाशर्म जब तक थी; यह समझ लो धर्म थाइसीलिए तो कहा गया कि जिस कार्य को करने में शर्म अनुभव हो तो समझो वह धर्म के विपरीत है
शर्म को अगर थोड़ा बारीकी से सोचा जाये तो ये समझ आएगा कि ये होती तो हमको है; पर समाज के कारण होती हैयानि समाज स्वयं शर्म शील होता है; जिसके कारण हमें शर्म होती हैसमाज जिसको सही नहीं मानता उससे हमें शर्म होती है समाज शर्म करने के लिए प्रेरित करता है
और ये हमारा, ‘भारतीय समाज का सौभाग्य ही है कि हमारी संस्कृति-समाज और धर्म में शर्म की जड़ें बहुत ही गहरी हैं इसीलिए इसे प्रतिष्ठा का विषय समझ कर इसके लिए अपनों की, दूसरों की हत्या और आत्महत्या तक हम कर लेते हैं
यही शर्म है जो हमें धर्म पर रहना सिखाती है, यही शर्म है जो हमें आचरण में संयम सिखाती है, यही शर्म है जो हमारे संस्कार बन जाती है इसीलिए शर्म होनी चाहिए और इसका महत्त्व सभी को पता होना चाहिए मनुष्य ने वस्त्र धारण करने ही इसलिए आरम्भ किये होंगे कि उसे शर्म का अनुभव होने लगावर्ना; किसे नहीं पता कि वस्त्रों के अन्दर सब एक जैसे ही हैं
अब, शर्म भी कहीं-कहीं पर नहीं करने का आचरण है; जैसे पति-पत्नी का व्यव्हार अगर शर्म से बाधित हो जाये तो श्रष्टि कैसे चले लेकिन ; उन्हें भी शेष समाज से शर्म करने की जरुरत होती है ,वह जो कार्य एकांत में करने का होता है उसे परिवार समाज के सामने करने में शर्म अनुभव करते हैं
पर ; आज "यही शर्म" अधिकांश मनुष्यों में लुप्त हो गयी हैविशेषकर जिन्हेंबड़ासमझा जाता है, या आदर्श माना जाता है उनमें तो इसका एकदम से अभाव हो गया है थोड़ा-बहुत जो शर्म बची है वह निम्न मध्य वर्गीय परिवार हैं उनमें ही कहीं-कहीं देखने को मिल रही है

बाकी तो जो बड़ा होता गया; 'कुछ कमाने-खाने-पीने लगा उसने शर्म को दकियानूसी कहना शुरू कर दिया; और स्वयं तो छोड़ा ही (शर्म करना) समाज को भी ऐसी ही सीख देने की कोशिश में लग गयासभी उसकी तरह बेशर्म हो जाएँ तो उसे भी शर्म अनुभव हो
वर्ना उसके अन्दर भी शर्म के संस्कार तो इतने गहरे हैं कि उसे ग्लानी अनुभव होती हैतभी वह चाहता है कि सभी बेशर्म हो जाएँ तो उसे शर्म करने की आवश्यकता हो और यह खेल अनवरत रूप से चल रहा हैचाहे आज किसी भी क्षेत्र में देख लें

5 comments:

  1. पूरी तरह सहमत, बहुत सुन्दर लिखा है !

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  2. सच बड़ी बेशर्मी से बता रहे हो साहब....

    कुंवर जी,

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  3. जो संस्कृति विरोधी होगा विरोध के प्रश्न पर और जो संस्कृति समर्थक होगा तो समर्थन के प्रश्न पर, उनके विचार परस्पर आधारभूत समानता दर्शाएंगे मौलिक विविधता उस विषय पर कार्यान्वयन के विकल्प प्रस्तुत करती है!हमारे लक्ष्य एक होकर भी आपके पास विकल्प टेंशन पॉइंट है मेरे पास विविध विषयों पर 25 ब्लाग की शृखला,उनके समायोजन हेतु संकलक (सभी राष्ट्र भक्तों का मंच) देशकीमिटटी.फीडक्लुस्टर.कॉम जिसमे आपके जैसे 36 अन्य ब्लाग संकलित हैं!
    आपके विचार से मतभेद नहीं है संशोधन यह है कि धर्म से शर्म नहीं धर्म के कारण शर्म जीवित रही है!
    Live traffic feed की भांति हमारा एक gadget कुछ दिन आपके ब्लाग पर भी दिखा था वह संकलक से जुड़े 70 ब्लाग की नवीनतम प्रविष्ठियां एक जगह दर्शाता है कृ पुनः लगा लें साथ ही ब्लाग वाणी की भांति प्रतीक चिन्ह देश की मिटटी संकलक का भी है उपयोगी रहेगा! सादर वन्दे मातरम

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  4. धर्म से शर्म नहीं धर्म के कारण शर्म जीवित रही है

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