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Thursday, July 16, 2009

लोकतंत्र या बंधुआ मजदूरी

छोटा सा राज्य उत्तराखंड, जब उसके पूर्व मुख्य मंत्रियों ,वो भी केवल तीन पर, इतना(तीस लाख प्र.माह) खर्च होता है तो ये काफी विचारनीय प्रश्न है कि पूरे देश में कितना खर्च होता होगा। जो सेवानिव्रत हो गए हैं ये खर्च तो उन पर है। जो सेवा में हैं उनका तो हिसाब लगाया जाना मुश्किल ही है क्योंकि कागज किताबों से कई गुना ज्यादा वह भ्रष्टाचार से कमा रहे हैं ।
ये सब लोकतंत्र के नाम पर ठगी नहीं तो क्या है। और कुछ ही नेताओं की वंश परम्परा के कारण भारत के लोग बंधुआ मजदुर की तरह बंधे हुए नही हैं। वोट देना ही देना है नहीं दोगे तब भी कोई न कोई चुना जाएगा । मतलब न चाहते हुए भी कोई न कोई चुना जाएगा ।
फ़िर, आम आदमी को खाने को सूखी रोटी मिले न मिले पर इन्हें रसमलाई खिलानी पड़ेगी इनके मरने तक सारे नाज नखरे उठाने पड़ेंगे । मरने के बाद ,
फ़िर इनके बच्चे तैयार हो जायेंगे । ये सिलसिला थमता नहीं दिख रहा ।
अभी तो वह खर्च अलग हैं तो ये अपनी सनक पूरी करने के लिए करते हैं जैसे मायावती हाथी बनवा रहीं हैं


हिंग लगे न फिटकरी रोंग चोखा हम भी लोकतंत्र के बंधुआ मजदूर करते रहेंगे।

1 comment:

  1. क्या कर लोगे इनका भैये क्य कर लोगे, पेड़ लगाया नीम का, आम की रखे आस!

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