ताजा प्रविष्ठियां

Sunday, June 28, 2009

जलाभिषेक

आजकल जगह –जगह भगवान् को जल चढाया(जलाभिषेक किया) जा रहा है।
कि बरसात हो जाए । तब मुझे मनुष्य की होशियारी पर ये पोस्टर की बात
सूझ गई । जो मैंने यहाँ के टेंशन पॉइंट चौक पर लगाया है। क्योंकि
यहाँ भी कल जलाभिषेक का कार्यक्रम है। पोस्टर का व्यंग पूरी बात समझा देता है।

Friday, June 26, 2009

मेरे देश की धरती

मेरे देश की धरती, जो कभी देश के लिए सोना उगलती थी,
आज ,उद्योगपतियों ,बिल्डरों ,नेताओं के लिए सोना उगलती है।
देश का अपना(स्वदेशी) सबकुछ ख़त्म हो रहा है,क्योंकि
देश की उपजाऊ भूमि पर उद्योग,कालोनियां(सेज)के नाम पर
“सरकार बनवा रही है”।
वर्तमान स्थिति,हमारे पूर्व नेताओं की (अ)दूरदृष्टि का फल
है, वर्तमान नेताओं की करनी का फल भविष्य में कैसा होगा।

पोस्ट नहीं पोस्टर


मेरी पिछली पोस्ट ( अंग्रेज गए औलाद…..)बहुत ही लम्बी हो गई थी
इसलिए ये पोस्ट नहीं “पोस्टर” दे रहा हूँ जिसे यहाँ के चौक पर भी लगाया है। उसका फोटो है, जिसमे एक शब्द आया है “सपाड़ा”(सपाड़ेंगे)इसका मतलब होता है,"करना" जैसे “काम सपाड़ा”। इसका इस्तेमाल, व्यंग के रूप में तब किया जाता है जब कोई व्यक्ति कुछ भी काम न कर पाये ।

Wednesday, June 24, 2009

"अंग्रेज गए औलाद छोड़ गए"

लोग कहते हैं कि “अंग्रेज गए औलाद छोड़ गए” जिसे सुन कर एकदम नीम की तरह कड़वा लगता है। और उन लोगों को तो ये वाक्य वास्तव में बहुत बुरा लगता होगा जिन पर ये सार्थक होता है,सार्थक होने के बावजूद कौन चाहेगा कि उसे दूसरे की औलाद कहा जाए, वो भी उनकी; जो समस्त भारतीयों के लिए घृणा के पात्र रहे हों । ऐसे लोग जिन्हें "अंग्रेजों की…… "कहा गया पहले से कम होते थे ,लेकिन अब तो बहुतायत में ऐसे लोग नजर आते हैं कि कभी तो ऐसा लगता है जैसे सभी पर ये वाक्य लागू कर देना चाहिए।
आजकल ग्लोब्लाइजेशन के दौर में अंग्रेजों की तरह और भी कई तरह की औलादें पैदा हो गई हैं ,उनके लिए छोड़ गए शब्द इस्तेमाल नहीं कर सकते ; क्योंकि वे अंग्रेजों के जाने के कई साल बाद पैदा हुए हैं। जी हाँ वे पैदा हुए हैं , ग्लोब्लाइजेशन के कारण से। जिसको जिस देश का फैशन या अन्य कुछ अच्छा लगा वह उस देश की औलाद बन गया ,फ़िर वो भारत की औलाद नहीं रहा । जैसे किसी भी औलाद को अपने माँ-बाप की बुराई दिखाई नहीं देती उसे भी अपने दत्तक पिता की बुराई दिखाई नहीं देती। वो उसकी बुराई सुन भी नहीं सकते ।
केवल फैशन में ही नहीं उसकी सभ्यता-संस्कृति, रीति-रिवाज,परम्पराएं,धर्म,आध्यात्म,
इतिहास,इतिहास पुरूष,सांस्कृतिक ग्रन्थ वगैरह सब उसे अच्छे लगते हैं,और केवल अच्छे ही नहीं लगते औरों को अच्छा लगाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है,चाहे अपने वास्तविक पिता की कितनी भी बुराई करनी पड़े; उसे उसमे जो अच्छी से अच्छी बात भी होगी उसमे बुराई ही नजर आएगी, वरना; किसी भी पुत्र को कुछ देर के लिए हो सकता है गुस्सा आए और कोई बुराई भी नजर आए, पर कुछ देरमें वह शांत हो जाता है और पिता से उसे कोई शिकायत नहीं रहती।और पिता से मतभेद होने का मतलब ये भी नहीं समझता कि पूरे खानदान में बुराई ही नजर आए ।
मेरे एक दोस्त की शादी हुई और शादी के दिन से ही वह एक बात बोलता है कि अपने
पिता के पाँव छूने में शर्म लगती थी अब ससुर जी की चरणवंदना करनी पड़ती है। पर पिता के पाँव न छूने के बावजूद जितना सम्मान उनके प्रति है उतना ससुर जी के प्रति दिखावे में थोड़े ही है। लेकिन हमारे इन विदेशी पुत्रों के साथ ऐसा नही है,ये तो तन-मन-धन से, मन-प्राण-वचन-कर्म से इनका गुणगान करते रहते हैं जैसे_ पिछले दिनों किसी शिक्षण संस्थान ने अपने संस्थान में जींस की पैंट पर रोक लगा दी (जो शायद लड़कियों के लिए थी) बस हमारे यहाँ की विदेशी औलादों को मौका मिल गया ये सभी जगह पर हैं, ई. मीडिया में जो हैं, उन्होंने पहले इस ख़बर को इस तरह से उछाला कि जैसे तालिबान का हमला हो गया हो फ़िर कुछ ऐसे विशेषज्ञ बुलाये गए जो इनसे पुरानी औलाद थे एकाध स्वदेशी भी बुलाया था (अगर न बुलाएँ तो जीतने की संतुष्टि नहीं मिलती) फ़िर, वही हुआ जो होना था अपने असली बाप में बुराई ही नजर आई और विदेशी में अच्छाई नजर आनी ही थी (ये और बात है कि अगर विदेशी हमारी किसी बात को अच्छा बोल दें तो फ़िर ये उसके गुण गाने लगेंगे, लेकिन विदेशी बहुत चालू, सोच-समझ कर ही बोलते हैं जब तक हमारे यहाँ फूट न पड़ जाए नही बोलते)तो साहब किसी माई के ला ने यह नहीं कहा कि संस्थान अपना ड्रेसकोड लागू क्यों नहीं कर सकता । इनकी नजर में जींस शालीन पहनावा हो सकता है (जवान लड़कियों के लिए )पर इन्हीं लोगों की नजर में सेक्सी दिखना ही सुन्दरता है।( भई हमारी भारतीय सोच तो ये है कि सुन्दरता वो ,जिसे देख कर श्रद्धा पैदा हो) लेकिन इनकी सोच में जिस लड़की या महिला को देख कर सेक्सी विचार न पैदा हों वो सुंदर नही। फिल्मी लोगों द्वारा भी यही भ्रम फैलाया जाता है। सबसे ज्यादा इस सोच को बढ़ावा मिला टी.वी.चैनलों के खुलेपन से। हमारे यहाँ के आम जन में भी कई भ्रम जड़ जमा चुके हैं। खैर ,वो बात फ़िर कभी; अभी तो अंग्रेज औलादों(माफ़ करना विदेशी…) की बात चल रही थी, उन ड्रेसकोड विरोधियों से ये भी किसी ने नहीं पूछा कि संस्थान में जितनी देर के लिए वह आते हैं अगर जींस न पहने तो क्या उनके दिमाग में पढ़ाया हुआ नहीं घुसेगा। जींस के आलावा कुछ शालीन पहन कर आने को कहा गया था पर इन्होंने ऐसा बबाल बनाया कि जैसे बिना कुछ पहने आने को बोल दियाi हो । मैंने सुना कि कुछ होटल ऐसे हैं जहाँ साधारण वेशभूसा में नहीं जाने देते इन्होने आज तक कभी उन की खिलाफत नहीं की; कारण ,वे या तो विदेशी हैं या उनसे प्रभावित ....हैं।
किसी भी समाज में बुराइयाँ होती हैं इससे इनकार नहीं ,लेकिन इसका मतलब ये प्रभाव नहीं कि अच्छाइयों को भी बुरा साबित करने के लिए कुतर्कों के आधार पर बहस करो-करवाओ,महिला सशक्तिकरण,महिलाओं की आजादी पुरुषों से बराबरी के नाम पर भी इन्होंने अच्छे-अच्छों को भांग पिला रखी है, ऐसा माहौल बना रखा है जैसे भारत में आज तक महिलाऐं कैसे जिन्दा रहीं होंगी? जबकि मेरे अनुसार स्त्री-- स्त्री हैपुरुष--- पुरूष है ,और प्रकृति प्रदत्त दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं,स्त्री अगर पुरूष बनने की कोशिश करेगी, प्रकृति के तौर पर, तो किन्नर से अधिक कुछ नहीं बन पायेगी,ऐसे ही अगर पुरूष स्त्री बनने की कोशिश करेगा तो वह भी किन्नर जैसा ही लगेगा । ऐसे लोगों को इन्हीं में सबने देखा होगा। हमारे अनुसार तो दोनों प्राकृतिक तौर पर बराबर ही नहीं अपितु एक के बिना दूसरा बेकार है ।(दोनों का एक दुसरे के बिना अस्तित्व ही नहीं हो सकता) इन दोनों में बराबरी का सवाल कैसे खड़ा हो गया ? इन्होंने पैदा किया। कहते हैं कि किसी बात को बार-बार बोलो तो वह सही लगने लगती है ,चाहे भयंकर झूठ ही क्यों न हो। महिलाओं की भौतिक स्थिति (जो पुरुषों से प्राकृतिक भिन्नता के कारण भिन्न होती है ) देख कर ; इन्होंने ये प्रचारित किया कि महिलाओं के साथ अन्या हो रहा है और सदियों से हो रहा है ,उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता ,इसमे इनकी सहायक हुई कुछ बुराईयाँ जैसे सती प्रथा ,परदा प्रथा ,बाल विवाह
,विधवा का पुनर्विवाह न होना जैसी ही कुछ अन्य बुराईयाँ भी (जिनके विषय में मैंने पढ़ा, कि इतिहास में समय-समय पर किन्हीं कारणों से ये बुराईयाँ हमारे समाज में पैदा हुई, जैसे दुश्मनों से बचने को सती प्रथा या परदा प्रथा ) इन्होंने इन बुराईयों के साथ ही नारी सुलभ प्राकृतिक गुणों (शील , शर्म, संकोच,कोमलता )को महिलाओं की कमजोरी कहा,
और बार-बार कहा , जिसे आज लगभग सभी, सच मानने वाले मिलेंगे । वो तो हमारी संस्कृति -सभ्यता हमारे खून में समायी हुई है। वरना इन बड़े और ज्यादा पढ़े (वो भी विदेशी शिक्षा )लोगों ने कोई कसर
नहीं छोड़ी थी ,फिल्मों ,सीरियलों ,विज्ञापनों में तो इनकी कुंठित व सड़ी हुई मानसिकता सब देखते ही हैं इन्होंने खेलों तक को नहीं छोड़ा , इन पुरूषहीनों (अपने को पुरुषों से कम समझने वालियों )को या इन टी.वी. वालों को आज तक नहीं दिखाई दिया कि खेलों में महिला खिलाडिओं के खेल वस्त्र पुरुषों के खेल वस्त्रों से अलग तरह से बल्कि ये कहना चाहिए कि विशेष तौर पर डिजाईन क्यों किए जाते हैं । जो वस्त्र पुरूष के लिए सुविधाजनक हैं वह खेलों में महिलाओं के लिए कैसे असुविधाजनक हैं , आप टेनिस में ही देख लो पुरूष घुटनों तक निकर पहनते हैं और महिला खिलाड़ी मिनीस्कर्ट में ही खेलती है ,तैराकी में, एथलेटिक के किसी भी खेल में ,क्या इनकी मानसिकता का यहाँ पर पता नहीं चलता । एक तर्क (कुतर्क ) ये देते हैं कि अगर विदेशी पहनावा ठीक नहीं तो पुरुषों को भी पेंट-कमीज छोड़ कर धोती-कुरता या पजामा पहनना चाहिए। इनका सोचना ये है कि पुरूष अपने आप तो विदेशी फैशन के कपड़े पहनते हैं महिलाओं के लिए न पहनने कि वकालत करते हैं । पुरूष पेंट कमीज में अश्लील तो नहीं हो जाते फ़िर पुरुषों कि शारीरिक बनावट भी ऐसी है कि ज्यादा जल्दी अश्लील नहीं दीखते ,पर उनकी देखा देखी महिलाएं ये सोचें हम पुरुषों कि बराबरी करेंगी तो , किन्नर से ज्यादा कुछ नहीं लगेंगी । वो तो शुक्र है कि भारत में मुश्किल से दो-चार प्रतिशत ही ऐसी महिलाऐं होंगी । लेकिन वो मीडिया को हथियार बना लें क्योंकि मिडिया में नौकरी करती हैं ,उन्हीं के जैसे पुरूष मित्र उन्हें मिल जाएँ और भारतीय सभ्यता-संस्कृति को कोसें ,बुराईयों का विरोध होना चाहिए ठीक है ,लेकिन विदेशी बुराई का समर्थन इन लोगों कि मानसिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है ।
ये महिलाओं के प्राकृतिक गुणों को क्यों ख़त्म करना चाहते हैं
(जिन्हें वे स्वयं ख़त्म करना नहीं चाहती )
ये उन्हें बरगला कर विदेशियों का हवाला देकर ,पुरुषों से तुलना करके, बिना प्राकृतिक बनावट को ध्यान में रख कर ,उकसाते हैं ,मैं जनता हूँ ये कहते हैं कि महिलाएं स्वयं समझदार हैं उन्हें स्वयं करने दो ,यही बात मैं कहूँगा कि महिलाएं स्वयं समझदार हैं इसीलिए तो इनकी लाख कोशिशों के बाद भी एक दो प्रतिशत महिलाएं ही इनके जैसी हो पायीं ।
हमारा भारतीय समाज स्वयं समझदार है कोई भी बाप ये नहीं चाहेगा कि उसका लड़का या लड़की शराबी बने ,जुआरी बने ,व्यभिचारी बने, गुंडा-बदमाश बने(चाहे वह स्वयं इनमे से कुछ भी हो )इसी तरह कोई भी माँ नहीं चाहेगी कि उसकी औलाद खास कर लड़कियां उच्श्रंखल हों सुसंस्कृत माएं एक उम्र के बाद लड़कियों को आवश्यक निर्देश देने लगती हैं केवललड़कियों
को ही नहीं लड़कों को भी। इनका(विदेशी .....का) ये कुत्सित प्रयास समाज में महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ा रहा है, और ये तर्क देते हैं कि जो महिलाएं इस तरह से समाज में रहती हैं उनके साथ तो कुछ नहीं होता निचले तबके के साथ अपराध होता है जो असुरक्षित हैं ,ये मानने को तैयार नहीं कि इनके इस खुलेपन के व्यवहार से ही ये अपराध बढ़ रहे हैं जैसे पर्यावरण प्रदूषित कोई और कर रहा है भुगतना किसी और को पड़ रहा है ।





Monday, June 22, 2009

ओह! शाहरुख़ ….. ।

अब तुम्हारा क्या होगा , कौन तुम्हें रोटी-पानी देगा,
कौन तुम्हारे दुःख-दर्द में तुम्हारा साथ देगा ।
सुना है तुम्हें धर्म से बहिष्कृत कर दिया है,
अब क्या करोगे ,जल्दी से माफ़ी मांग लो,बड़ा उदार
मजहब व मौलवी हैं। माफ़ी दे देंगे और वापस लेलेंगे ।

वरना अकेले पड़ जाओगे ,भूखे मरने की नौबत न आजाये। इस शुभचिंतक(फैन नहीं)की बात नजरअंदाज न करना।






ये चिंता और उद्देश्य स्वामी रामदेव के हैं ,ग़लत तो नहीं हैं। पौराणिक इतिहास में ऋषि -मुनि ही राज्य को और राजाको उचित मार्गदर्शन किया करते थे तब राम ,चन्द्रगुप्त व अशोक जैसे सम्राट हुआ करते थे।

Sunday, June 21, 2009

ये पता नहीं क्या है

जी हाँ मुझे नहीं पता कि ये कविता है,गजल है,नज्म है या शेर । जो इस विषय में जानते हों मुझे भी बताना। मैंने तो हालात को देख कर जो मन में आया लिख दिया ।
हाल ऐ गुलिस्तां जो अब है ,
सोचता हूँ कुछ वक्त बाद क्या होगा ॥
हर शै जहरीली हो गई ,
(जहर)हद से पार हुआ तो क्या होगा ॥
सो गई इंसानियत ऐ आदम ,
(इंसानियत)ख़त्म हुई तो क्या होगा ॥
अय्यास हुए हुक्मरां जिस वतन के ,
अवाम न जागी तो क्या होगा ॥
वैसे तो पार हो गई कई हदें दोस्तो,
आखिरी हद पार हुई तो क्या होगा॥

“अमेरिका प्रशिक्षित सांसद”

" अब खुलेआम अमेरिकी खुफिया एजेंट हमारी संसद में होने जा रहे हैं क्या "?
अधिकारी , इंजिनियर,डॉक्टर, व अन्य, सभी अमेरिकन प्रशिक्षण प्राप्त हैं
तो नेता क्यों पीछे रहें, जैसे अमेरिकी नेताओं ने अपने देश का भला कर लिया वैसे ही अब भारतीय नेता उनसे सीख कर करेंगे।
दूसरी बड़ी बात अभी तक बड़ी-बड़ी अमेरिकन कम्पनियों के भारतीय अधिकारी जैसे अपनी कम्पनियों के हित की बात करते हैं अब वैसे ही भारत के सांसद भी करेंगे । उसके(अमेरिका ) हक़ में नीतियाँ बनायेंगे।

Friday, June 19, 2009

चित्रकूट और लालगढ़ मुठभेड़

एक डकैत-चार सौ (+) पुलिस वाले और पचास घंटे,तीन शहीद,
डकैत फ़िर भी भाग निकला ।( आख़िर में मारा गया)।
समझ नहीं आया कि किसका प्रशिक्षण अच्छा है,पुलिस का या डकैत का। ऐसा ही नक्सलवादियों और सुरक्षा बलों में हो रहा है।
अगर कानून का दुरूपयोग नहीं होता तो नक्सलवाद पनपता ही नहीं ,अभी भी अगर कानून का सही उपयोग(दुरूपयोग नहीं) किया जाए तो नक्सलवाद,माओवाद से निपटा
जा सकता है ।
लेकिन वर्तमान मुठभेड़ में इन्हें (नक्सलियों-माओवादियों को)वैसे ही ख़त्म
करके दिखाओ। जैसे श्री लंका ने लिट्टे को किया। अगर इन्होंने महिलाओं व बच्चों को
ढाल बना रखा है तो
सरकार को भी इनके समर्थक नेताओं को सुरक्षा बलों के
आगे लगा कर ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहिए।

Thursday, June 18, 2009

समस्या

हमारे देश में
आम आदमी
(जो पेट भरने में व्यस्त है) की कोई सुनता नहीं ।
खास आदमी
(जिसका पेट भरा है येन-केन पैसा कमा रहा है)कुछ कहता नहीं ।
अति खास
(नेता-अधिकारी-उद्योगपति)
ने न कुछ कहना,न कुछ सुनना, न कुछ करना ।
आख़िर हिन्दुस्तान का क्या होगा ?
टेंशन नहीं लेना दोस्त, बाबा रामदेव ने बिगुल
(भारत स्वाभिमान मंच के रूप में) बजा दिया है,

सिपाही तैयार हो रहे हैं।
सभी देशभक्तों को साथ देने को तैयार रहना है ।
हम तो तैयार हैं । क्या आप भी हैं....... ?

मेरी पहली पोस्ट

१. ऐसी बानी बोलीए, मन में चिंता होए ,

औरन को चिंतित करे, आपहू चिंतित होए ॥

२. बेईमानी ईतनी कीजिए, कई पीढियां तर जाएँ ,

अगला जन्म किसने देखा, चाहे केंचुआ बन जाएँ ॥

ये मेरी सबसे पहली पोस्ट थी कैसी लगी अवश्य बताईयेगा ,धन्यवाद

Wednesday, June 17, 2009

राज मार्ग की दुर्घटना

घटना- घटते ही ये लोग, दुर्घटना की जबरदस्त आवाज के साथ दौड़ पड़ते हैं ,घटना स्थल पर आते ही ये सबसे पहले बिखरे पड़े कीमती सामन पर छीना-झपटी करते हैं, घायल और मरने वालों के शरीरों से
भी गहने और नकदी निकाल लेते हैं,घायलों की कराहों की तरफ़ उनका ध्यान बिल्कुल


हम रोडवेज की बस से सफर कर रहे थे जैसे ही टोल रोड पर मुड़े एक राहत की
साँस ली, कि दस-बारह किलोमीटर का रास्ता बिना ब्रेक के पार हो जाएगा और स्पीड
भी अच्छी रहेगी लेकिन कुछ आगे चलने पर जैसे ही बस ने गति पकड़ी,
अचानक से कई सारी भैंसें लगभग दौड़ती हुयी सड़क पर आ गयीं।
चालक ने किसी तरह संभाल लिया, और गुस्से में भैसों के पीछे आ रहे
आदमी को गाली देकर आगे बढ़ गया ,एक बार तो बस में बैठे प्रत्येक
सवार की धड़कन तेज हो गई थी। हमारे चालक ने तो संभाल लिया ,
पर कभी-कभी इन टोल रोडों पर किनारे से अचानक कोई ट्रेक्टर वाला
या कोई बुग्गी(भैंसा गाड़ी) वाला बिना अपनी या दुसरे की परवाह किए
बीच में आ जाता है जिससे सीधे चलने वाले चालक के लिए संभालना
मुश्किल हो जाता है, और दुर्घटना घट जाती है, छोटी गाड़ियों के तो
परखच्चे उड़ जाते हैं। अक्सर ऐसी ख़बर समाचार-पत्र में पढ़
कर इन राजमार्गों की कमी पर मन दुखी होता है,और कमी यही है कि इनके
किनारे से कहीं से भी अचानक कोई ट्रेक्टर,भैसा गाड़ी,या भैसें ही सही
घुस आते हैं जिससे बड़ी दुर्घटना हो जाती है। उसके बाद का नजारा समाचारों
में पढ़ कर तो मन, स्थानीय लोगों (ग्रामीणों ) की अमानवीयता के प्रति घृणा
से भर जाता है।घटना घटते ही ये लोग दुर्घटना की जबरदस्त आवाज के साथ दौड़ पड़ते हैं ,घटना स्थल पर आते ही ये सबसे पहले बिखरे पड़े कीमती सामान पर छीना-झपटी करते हैं, घायल और मरने वालों के शरीरों से
भी गहने और नकदी निकाल लेते हैं,घायलों कि कराहों की तरफ़ उनका ध्यान बिल्कुल भी नहीं जाता, यहाँ तक कि वे रोते हुए बच्चों तक को नहीं उठाते
नोचने- खसोटने में उस समय ये चील- कौओं की तरह नजर आते हैं।
ये हमारे ग्रामीण समाज की मानवीयता का नजारा है ।
उस दृश्य को सोच कर तो ऐसा
लगता है कि जैसे ये ट्रेक्टर ट्रौलियाँ जानबूझ कर तो बीच में नहीं लायी जाती,क्योंकि
ये भारी सामान से भरी होती हैं,इनसे टकरा कर छोटी गाड़ियों के तो परखच्चे
उड़ जाते हैं पर इनका कुछ नहीं बिगड़ता। जब तक अन्य लोग या पुलिस वाले आते हैं
तब तक मेरे देश के वीर जवान घायलों व मुर्दों को नोच चुके होते हैं।
ईश्वर न करे कि ये हाल सभी जगह का हो,टोल रोड के बनाने वालों को भी ये समझना चाहिए कि जिस गति से उस पर वाहन चलने के लिए उन्हें बनाया
गया है उसके लिए उसमे ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई भी अचानक बीच में न घुस सके । दुर्घटना के बाद जहाँ ग्रामीणों को मौका नहीं मिलता वहां पुलिस वाले
नोच लेते हैं। नाम ग्रामीणों का लगा देते हैं
। दोनों ही बातें अमानवीय हैं।
“राष्ट्रिय राजमार्ग”साधारण मार्ग से कुछ अलग सा अहसास कराते हैं।
अब तो इन पर कहीं-कहीं टोल रोड बन गई है ,जिससे गाड़ी चलाने का मजा
वाकई बहुत बढ़ जाता है। हलाँकि ये उतने अच्छे नहीं कहे जा सकते
जैसे विदेशों के सुने हैं ,फ़िर भी साधारण मार्गों से ये ज्यादा अच्छे
और कम भीड़-भाड़ के लिए जाने जाते हैं। पर ये कमी इन पर काला धब्बा लगा देती है जिस समय इस तरह का दृश्य पढ़ा तो वह गाना याद आ गया
" ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का इस देश का यारो क्या कहना "।

Tuesday, June 16, 2009

क्रिकेट

ट्वेंटी-ट्वेंटी में भारत हार गया।
क्यों हारा ? ये हारने वाला खेल थोड़े ही होता है।
पिछली बार विश्व कप जीता था तब नहीं हारा तो अब
कैसे हार गया ।
हम अपने खिलाड़ियों को भगवन की तरह पूजते हैं।
फ़िर भी उन्होंने हारने की जुर्रत की । बेशुमार पैसा ये
क्रिकेट की बदौलत कमाते हैं फ़िर भी ये हारे। आख़िर क्यों ?
ऐसी गलती ये क्यों करते हैं जिससे हारें। खेल में गलती.... ?
बड़ा ताज्जुब है कि खेल में गलती क्यों हो जाती है।
क्रिकेट खेलना है तो हमेशा जीतो । बस जीतो…जीतो और जीतो।
हारो मत।
दोस्तो क्या कुछ ऐसा ही नजरिया हमारे टी.वी.
न्यूज चैनलों का नहीं होता। खेल से पहले भी ये चैनल
कुछ न कुछ ऐसा करते हैं कि ऐसा लगता है ये टीम इंडिया
पर अनावश्यक दबाव बना रहे हैं। जैसे इस बार भी इन्होंने
सहवाग और धौनी के बीच बेमतलब की मनमुटाव की खबरें
बना कर उड़ा भी दी। खिलाड़ियों की एकाग्रता तो भंग हो ही जाती है।

Monday, June 15, 2009

हड़ताल के बारे में

मेरा दस साल का बेटा समाचारों में हड़ताल के बारे में सुन कर मुझसे सवाल करता है कि पिताजी
“लोग हड़ताल क्यों करते हैं”
मैंने कहा बेटा जब किसी को उसके अधिकार नहीं मिलते और
सरकार कुछ सुनती नहीं तो तब वे हड़ताल करते हैं।
लेकिन साहब नया ज़माना है,बच्चे केवल कार्टून ही नहीं देखते कभी-कभी समाचार भी देख लेते हैं, मेरा लड़का झट से बोला कि ,
पर पापा ये तो सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल है,
इन्हें तो सरकार ने ही सब कुछ दिया हुआ है,ये फ़िर भी सरकार
के खिलाफ हड़ताल करते हैं।
मैंने अपने दिमाग में फ़िर कुछ सोचा और बोला
कि बेटे सरकारी नियमों के अनुसार इन्हें कुछ और मिलना चाहिए जिसे देने
में सरकार देर करती है,तब ये हड़ताल करते हैं।
तो ये सरकार कि नौकरी छोड़
क्यों नहीं देते। जहाँ अच्छी नौकरी मिले इन्हें वहां नौकरी करनी चाहिए ।
पर बेटा सरकार ने ही तो इन्हें हड़ताल करने का अधिकार दे रखा है।
ये तो ग़लत दिया है। इससे जनता को कितनी परेशानी होती होगी ,
खैर … बच्चा उसके बाद बेशक चुप हो गया पर मेरे मन में कई सवाल
घूमने लगे कि वास्तव में अगर हमारी जरुरत सरकार पूरी नहीं कर रही तो
क्यों न हम दूसरी जगह नौकरी करें जहाँ हमें वो सब कुछ मिले जो
सरकार नहीं दे रही । क्या सरकारी नौकरी की चाह केवल इसलिए नहीं है कि
उसमे ये दामाद की तरह आराम करते हैं,
साल में ३६५ दिन वो भी २४ घंटे वाले,
इनकी नौकरी ५ से सात घंटे की ,मतलब साल का तिहाई हिस्सा (लगभग) ,
यानि १२२ दिन, जिसमे से जिनकी साप्ताहिक दो छुट्टियाँ होती हैं १०४ दिन
तो छुट्टियों में गए और त्यौहारों के लिए अलग,हारी-बिमारी व
आवश्यक कार्य के लिए अलग छुट्टियाँ निर्धारित हैं।
सोच लो, कि आख़िर ये कितना काम करते हैं ।
हड़ताल से जनता के साथ अन्याय होता है सरकार का कुछ नहीं बिगड़ता।
जब तक खाली पेट थे (नौकरी नहीं थी) तो कार(कार्य) चाहिए था।
जब पेट भर गया (नौकरी मिल गई) तो,अधिकार(ज्यादा से ज्यादा) चाहिए।
और उसके लिए हड़ताल करना हमारे सरकारी कर्मचारियों का संविधान सम्मत
अधिकार है। वरना आम आदमी तो यही सोचता है कि ये नौकरी छोड़ क्यों नही
देते ,बहुत लम्बी लाईन लगी है बेरोजगारों की ।

Sunday, June 14, 2009

फिजा के घर फ़िर से चाँद

मेरा पिया घर आया
मिडिया को मशाला मिल गया ।
कुछ दिन चटखारे लेंगे
कमाई करेंगे क्या पता
चाँद- फिजा की कमाई भी करवायें,

ये ड्रामा ही कमाई के लिए हो ।
वैसे बिना कुछ लिए कोई अपनी कहानी
इन टी.वी.वालों को क्यों बेचेगा इनकी अकेले
अकेले कमाई करने को।

सोचने का विषय है।

गरीबी बढ़ने के कारण

गरीबी बढ़ने का एक बड़ा कारण टूटते परिवार हैं।
ऐसा शोधों में पता चला है ।
अंधे भौतिकवाद की दौड़ में दौड़ते-दौड़ते आज ये
स्थिति आनी ही थी।
आज नशे का सबसे बड़ा कारण भी यही है ,अकेलापन
नशे को बढ़ावा देता है। बच्चों में बढ़ रही
उच्श्र्न्ख्लता ,घटते संस्कार ,जिनके कारण बढते अपराध
और इन सब की जड़ में हैं टी.वी.सीरियल,विज्ञापन,फिल्में।
इनमे दिखाई गई हाई-क्लास लाईफ-स्टाईल।
ये तो पिछले बीस-पच्चीस साल का परिणाम है,अब तो और बुरा हाल है जिसका परिणाम जल्दी-जल्दी मिलेगा क्योंकि ग्लोब्लायिजेशन का दौर है।
एक परिवार से टूट कर हम आजादी अनुभव तो करते हैं
लेकिन कई बुराईयों के गुलाम हो जाते हैं।

भाजपा(इ) भड़के(नेता)

"ज्यादा बिल्लियों में चूहे नहीं मरते"
जी ,हाँ ; ये कहावत भा.जा.पा. पर बिल्कुल फिट बैठती है।
इस देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था नाकाम होती जा रही है।
लोकतंत्र की तर्ज पर राजतंत्र सफल होता जा रहा है ,
ऐसे में भाजपा को भी अपना ढांचा बदलना चाहिए ।
हमारे यहाँ की आम जनता की मानसिकता राजाओं के प्रति
सर झुकाने की रही है। आर.एस.एस. को भी चाहिए कि कोई
ऐसा नेतृत्व पैदा करे जो माई-बाप बन कर पार्टी को
संभाल सके,और बीबी-बच्चों वाला हो ताकि वंश परम्परा
चल सके ।
वरना कहानी ख़त्म है। लगभग सभी पार्टियों
में यही हो रहा है,कम्युनिष्टों को भी यही करना पड़ेगा
बसपा का क्या होगा पता नहीं । राजानीती करनी है तो शायद इसके
आलावा कोई रास्ता नहीं।
दरअसल कांग्रेस की इस चाल को आजादी के
बाद ही हमारे विपक्ष के नेता नहीं समझ सके या ख़ुद भी
राजवंश के प्रति नतमस्तक हो गए, अब भुगतना पड़ रहा है।

Saturday, June 13, 2009

संभावनाएं

सदियों से राजवंश की परम्परा को मानने वाली
प्रजा को जैसे अपना राजा (माई-बाप)
मीडिया घोषित “युवराज”में मिल ही गया । अन्नदाता,हुजुर,महाराजधिराज नरेश बोलने के जींश
भारतीयों के खून में पिछले कुछ समय से कुलबुला
रहे थे ,अब उस कुलबुलाहट को शांत करने का समय आ गया है, संभवत:अगले प्रधानमंत्री के रूप में युवराज का राज्याभिषेक हो जाए । मीडिया के अनुसार पिचासी प्रतिशत जनता चाहती है।
और ये कुव्वत फिलहाल केवल कांग्रेस में ही दिखाई
दे रही है। बड़े-छोटे कोई भी हों माई-बाप बोलने में नहीं हिचकेंगे।
जैसा राजे-रजवाड़ों में हुआ करता था । अच्छा भी है देश को अपनी परम्पराओं के साथ सदियों से चलने की आदत है ,शायद इससे ज्यादा तरक्की हो।

जब राजे-रजवाड़ों का राज था तब देश सोने की चिडिया कहलाता था।
क्या पता अब भी बन जाए । पर उसके लिए कांग्रेस को
आजादी के बाद वाली गलतियाँ सुधारनी होंगी।
अंग्रेजियत छोड़ कर भारतीयता अपनानी होगी।

Friday, June 12, 2009

भारतीयों का भाग्य

लगता है भारतीयों पर गर्दिश चल रही है ।
चारों तरफ़ से परेशान हैं।
जाने किस के कर्मों का फल भोग रहे हैं ।
दुनिया की इतनी हिम्मत कैसे हो रही है।

अचानक से भारतीयों के प्रति इतनी नफरत का आख़िर क्या कारण है ?
कहीं दुनिया वाले हमारी तरक्की से जलने तो नहीं लगे।
इसलिए भारतीयो सावधान रहो।

Thursday, June 11, 2009

शाबास मीडिया

"शाबास मीडिया"

इतनी जिम्मेदार, जागरूक,जान-जोखिम में डालने वाली पत्रकारिता(न्यूज चैनल्स)और पत्रकार केवल भारत में ही हो सकते हैं। निर्णयात्मकता के साथ-साथ कहानी बनाने और प्रस्तुतीकरण में भी बेजोड़। बारीक़ से बारीक़ नजर ख़बरोंकी तह तक ही नही बल्की जो ख़बर न भी हो उसे भी खबर बना देती है।नक्शों द्वारा विस्तृत वर्णन;समझाने का ढंग ऐसा कि इसका लाभ हमारी सरकार के साथ-साथ आतंकवादी भी उठा सकते हैं। हमारी सुरक्षा कहाँ कमजोर या चाक- चौबंद है या कौन सेलिब्रिटी बिना सुरक्षा गार्ड के है सब पर इनकी नजर रहती है। ये सब(शायद) अभी तक निस्वार्थ भावः से ही करते होंगे।इन्हें किसी की नजर न लगे या इन पर किसी(भारत-सरकार)की नजर लगे।क्या कहूँ? जिस समाचार से विवाद पैदा न हो या तो उसे दिखाओ ही नहीं या उस पर विवाद पैदा कर दो ,चाहे सभ्यता-संस्कारों पर हो या किसी शिक्षण-संस्थान द्वारा लागु ड्रेसकोड हो ,ऐसी विशेषता वाले पत्रकारों को ही ये चैनलों में सामने खड़ा करते हैं । विवाद पैदा करने की योग्यता अनिवार्य है। छोटी से छोटी बात पर भी विवाद पैदा करना ही जैसे इन्हें सिखाया जाता हो चाहे क्रिकेट हो फील्डिंग
हो मैच में पकड़ा कैच हो या छुटा कैच हो फ़िल्म हो या राजनीती हो ,कुछ भी हो ये उसे समाचार नहीं रहने देते विवाद बना देते हैं । धन्य है भारतीय न्यूज चैनलों को ।

Tuesday, June 9, 2009

महंगाई


बिजली और महँगी होगी
हाँ भई चुनाव में दिया चंदा बिजली कम्पनियों ने वसूलना जो है ।
इसी लिए तो निजीकरण किया गया था ।

अब विद्युत-व्यवस्था बड़ी-बड़ी निजी कम्पनियों के हाथों में है ।
और इन बड़ी-बड़ी निजी कम्पनियों के मालिकों ने पिछले दिनों जो लोकसभा चुनाव
हुए हैं,उसमे नेताओं और पार्टियों को चुनाव लड़ने के लिए चंदा दिया होगा,
जिसे अब वसूलना होगा ,तो क्यों न विद्युत दरें बढाई जायें ,
नेताओं ने कुछ बोलना
नहीं क्योंकि उनके चंदे से जीते हैं,(जो जीते हैं), और जो हारे हैं उनके न बोलने
के कई कारण हैं ,१.जनता ने वोट नहीं दिए, सो, गुस्से में हैं,२.जीते वाले इनकी सुनेंगे नहीं, कि तुम हारे हुए हो तुम्हें नैतिक(नेतागिरी का) अधिकार नहीं है ।
३.अफसरशाही ने मुह नहीं लगना चिल्लाते रहो.४ हारने वालों ने भी कुछ न कुछ इन कम्पनियों से लिया होगा ,अब उसके खिलाफ कैसे बोलें।
तो साहब ,बिजली महँगी होगी जो की पहले ही महँगी है। पहले ही मीटर भी तेज रेट भी तेज ।
जनता को बहकाने के लिए एक विद्युत नियामक आयोग बना है ,पर वह भी शायद
गंगा में हाथ धो चुका होगा ।
वैसे भी दूरसंचार की तरह इस क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता कम है,अगर होती तो शायद टेलीफोन दरों की तरह इसमे भी महँगी नही सस्ती होनी चाहिए थी ,चलो सस्ती न हों तो कमसेकम बढती तो नहीं।

Monday, June 8, 2009

पर्यावरण

पर्यावरण के लिए आज सभी चिंतित हैं ।
बुद्धिजीवी का काम तो है ही चिंतित होना ,
और कुछ नहीं कर सकता, पर चिंतित जरुर हो सकता है।
सो , होता ही है ।
सरकार का काम चिंतित होने के साथ-साथ कुछ करने
का भी होता है । जिसके लिए हमारी सरकार कदम उठाने
की बात कह कर कदम रखना भूल जाती है । जबकि ये मुद्दा
आर्थिक मंदी से ज्यादा गंभीर है । (क्योंकि पीने के पानी की कमी होने लगी है )।
स्वयं सेवी संस्थायें अपनी मीटिंगों में ही पुरा बजट खर्च
कर देती हैं । धरातल पर केवल विज्ञापन ही नजर आते हैं ।
न्यूज चैनल वाले तो केवल वही मुद्दे अपने चैनलों पर दिखाते
हैं जिनसे कमाई होती है ।( वोट दो कैम्पेन की तरह )
जनता; जो सामान्य है, वो तो अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करने में ही
व्यस्त है, जो विशेष है वो नई गाड़ियों व नए फ्लैटों को खरीदने
में व्यस्त है । युवा बाईकिंग करने में मस्त हैं।
उद्योगपति; अपने लिए सेज की जमीन का इंतजाम कराने के लिए नेताओं को
उपाय बता रहे हैं।( कृषि भूमि पर उद्योग लगना है)।
पर; ये कोई नहीं समझ रहा की ये प्रकृति बचेगी तभी कुछ होगा
वरना ;प्रकृति अपने को बचाने के लिए जो कुछ करेगी उसमे सभी
लपेट में आयेंगे । अभी तो निरीह तोते व अन्य प्राणी खामियाजा भुगत
कर हमें चेतावनी देते रह रहे हैं। (नदियाँ सूख रहीं हैं )।
पर लगता नहीं कि कोई समझ रहा है। वैज्ञानिक केवल कारण बता सकते हैं।

हमारा काम भी टेंशन पैदा करना ही है, और कुछ नहीं कर सकते । शायद किसी को चिंता हो जाए ।

एक के तीन

अकेला अशोक जडेजा ही क्यों, कोई ऐसा बता दो जो हमें न ठग रहा हो।
कोई कम लालच नहीं था ,एक के तीन ही क्यों, चार गुना तक का लालच था ।
आ गए लपेट में। आज लालची कौन नहीं है, जिसके पास दो पैसे हैं वह
चाहता ही है कि चार हों।
कोई शेयर बाज़ार में लगता है ,कोई सट्टे बाजी
में लगाता है,और भी बहुत जगह हैं पैसे की ,आजकल जब से उदारीकरण चल
रहा है तब से बहुत सी कम्पनियां ऐसी आ गई हैं जो हाईटेक तरीके से ठग
रहीं हैं इसको मलि्टनेटवर्किंग का नाम दिया हुआ है, कोई एलोवेरा जूस या एप्पल जूस
बेच रही है कोई घरेलू सामान बेच रही है ,पहले-पहले ज्यादातर कम्पनियां
केवल पैसा लेकर सदस्यों की चेन बनाने को कह कर कई गुना कमाने को कहती
थी । इनके ठगने में भी बहुत लोग आते हैं और इनका बिजनेस भी करोड़ों में होगा
पर क्योंकि सरकार ने इन्हें रजिस्टर्ड कर रखा है इसलिए ये आजादी से काम कर रहीं
हैं। ये अधिकतर विदेशी होती हैं।
वैसे भी भारतीय समाज अगर ठगा न जाए तो शायद जी ही न पाए हमें बचपन
से ठगने का और ठगने(ठगे जाने) का प्रशिक्षण ,जाने-अनजाने मिलता रहता है
कोई ऐसी जगह बता दो जहाँ हम न ठगे जाते हों ।

चाहे एक के तीन करने के लिए ठगे जायें या केवल आश्वाशन पाकर ठगे जायें ।
अरबों रुपये का मुनाफा कम्पनियां बिना ठगे नहीं कमा रहीं। अगर ये अपना मुनाफा
कुछ कम कर दें तो कुछ महंगाई कम हो जाए ।
सबसे खरी बात, कि लोकतंत्र के नाम पर हम पिछले साठ साल से ठगे जा रहे हैं ।

Sunday, June 7, 2009

महिला आरक्षण

जहर मत खाओ-जो होगा वह बताओ।
जो महिलाएं सक्षम हैं उन्हें आरक्षण की आवश्यकता नहीं ।
जिन महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो रही है ,
उन्होंने राजनीति में आना नहीं ।
( राजनीतिक अपराधियों के कारण)
तो आरक्षण से लाभ आख़िर किसे मिलेगा ?
हाँ, राजनीति में अपराधियों के लिए आसानी हो जायेगी, वह अपनी पत्नी के
भरोसे राजनीति करेंगे,
(पार्टियों से टिकट की मांग करेंगे)
और पार्टियों के मालिकों(नेताओं)को बाहुबलियों का अपेक्षित
सहयोग मिल जाएगा।
(इसी के लिए तो कहीं आरक्षण की कवायद नहीं हो रही )।
महिला आरक्षण से पहले राजनीति में अपराधीकरण रोकने के लिए
किसी भी अपराधी के किसी नजदीकी सम्बन्धी के भी चुनाव लड़ने पर
रोक लगाने का कानून बन जाए तो ,किसी भी आरक्षण की आवश्यकता न पड़े ।
महिलाएं स्वयं राजनीति में आयें ,आरक्षण दे कर उन्हें पुरुषों से कम क्यों बना रहे हो ।

Saturday, June 6, 2009

भारत की नौकरशाही विश्व में सबसे रद्दी



न जाने इन शोध करने वालों को भी क्या-क्या विषय मिलते रहते हैं,


शोध करने के लिए । खैर , शोध करना ही था तो भारतीय नौकरशाही की तेजी पर करते,


नौकरशाही की सभी विशेषताओं पर करते ,


जैसे- नेताओं के आगे अपने स्वार्थों के लिए कमर झुकाने में ,


कई-कई सालों तक नेताओं को लल्लू बनाये रखने में ,


अपने बराबर वाले से टकराव व मातहतों का उत्पीड़न करने में,


सरकारी योजनाओं में तो भ्रष्टाचार करेंगे ही,अपने रिश्तेदारों के


लिए एन.जी.ओ बना कर सभी को कमाई का अवसर देने में ,


तेज-तर्रार नेता के आगे अपनी पेंट ढीली करने में


भ्रष्टाचार का धन विदेशी बेंकों में पहुँचाने में,


यानि हर वो कार्य जिससे इन्हें फायदा हो , देश या देशवासियों को बेशक नुकशान


हो जाए ,उसे करने में ये सबसे तेज होते हैं ।( माफ़ करना जो ऐसा नहीं करते वो बुरा मत मानना खरबूजे की तरह रंग बदलना)।

Thursday, June 4, 2009

आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले

आस्ट्रेलिया पिछले कुछ समय से नस्लवाद का केन्द्र बनता जा रहा है।
इसका नमूना हम क्रिकेट में भी यदा-कदा देखते रहते हैं।
दरअसल आस्ट्रेलियाईयों की ये गलत फहमी कि, वे सर्वश्रेष्ठ हैं, और जब ये बात ग़लत साबित

होती है उनकी आक्रामकता को बढ़ाती है। जिसे हम कहते हैं “खिसियानी बिल्ली खम्बा
नोंचे”और जब खम्बा नोंचने से भी काम नहीं चलता तब वह झपटने
लगती है। पर ऐसे में कुछ भारतीय छात्रों की जान पर भी बन आई, जो
काफी दुखद है
। भारतीय शांत और सरल होते हैं , ये सही है। पर,
भारतीय आक्रामक भी होते हैं, और जब आक्रामक होते हैं तब आस्ट्रेलिया वाले
केवल अपने बाल नोंचते हैं और कुछ नहीं कर पाते। ये सिद्ध किया है ,
हरभजन सिंह ने , (क्रिकेट मैदान में)
वैसे घर छोड़ कर जाने वाले का बाहर कम ही सम्मान होता है
या,घर से पूरी आड़ हो ,जैसे “बड़े घर से आई बहू और छोटे घर से आई बहू”
तो,
मेरी सरकार,(भारत) आक्रामक बनो ,हरभजन की तरह (पूरी क्रिकेट टीम को आईना दिखा दिया था)। और भारतवासियो दूसरे के पेड़ पर -अपने पेड़ से ज्यादा आम देखने से
ऐसा ही होता है। अपने देश में भी तो सब कुछ है, उस पर संतोष करो, दूसरे के
पेड़ से आम तोड़ने जाओगे तो डंडा तो मारेंगे ही।